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________________ हमारी तीर्थयात्राके संस्मरण (गत किरण पांच से आगे) सोनगढ़ गुजरातमें एक छोटासा कस्वा है। पहले किन्तु हिन्दी भाषियोंके आने पर प्रवचन हिन्दीभाषामें सोनगढ़को कोई नहीं जानता था । परन्तु अब सोनगढ़के भी होने लगता है। प्रवचन सरल और वस्तुतत्त्वके नामसे भारतका प्रायः प्रत्येक जैन परिचित है। प्रस्तुत विवेचनको लिये हुए होता है हम लोगोंन प्रवचन सुने, और सोनगढ़ गुजरातके संत कानजी स्वामीके कारण जैनधर्मका यह अनुभव भी किया कि सोनगढ़में मुमुक्षुका समय व्यर्थ एक केन्द्रसा बन गया है। कानजी स्वामीके उपदेशोंसे नहीं जाता समयकी उपयोगिता के साथ अध्यात्मग्रन्थोंके प्रभावित होकर काठियावाड़ गुजरातके ५ हजार व्यक्ति- अध्ययन और तत्त्वचर्चाके सुननका भी यथेष्ट अवसर योने दिगम्बर धर्मको अपनाया है। इस प्रान्तमें जो कार्य मिलता है। मुख्तार भीजुगलकिशोरजीके साथ उपादान कानजी स्वामीने किया है वैसा कार्य अन्यने नहीं किया। और निमित्त-सम्बन्धी चर्चा भी चली, तत्सम्बन्धी अनेक सोनगढ़में दिगम्बर जैनियोंके ११० घर विद्यमान है जिनकी प्रश्नोत्तर भी हुए। परन्तु अन्तिम निश्चयात्मक कोई संख्या लगभग ४०० के करीब है। ये सभी कुटुम्ब यहाँ निष्कर्ष नहीं निकला। केवल इतना कहने मात्रसे कि मूलपर अपना संयमी जीवन विता कर कानजी स्वामीके उप- में भूल छ' काम नहीं चल सकता; क्योंकि वस्तुतत्त्वकी देशोंसे लाभ उठा रहे हैं। उनका रहन-सहन सादा और उत्पत्तिमें उपादान और निमित्त दोनों ही कारण हैं। आहारादि साविक है। सामायिक, स्वाध्याय, प्रवचन, भक्ति इनके विना किसी वस्तुको निष्पत्ति नहीं होती। प्राचार्थ और शंकासमाधान जैसे सत्कार्यों में समय व्यतीत होता समन्तभद्रने 'निमित्तमभ्यन्तरमूलेहेतोः' वाक्यमें वस्तुकी है। उक्त स्वामीजीके उपदेशोंमे वहाँकी जनता प्ररित उत्पतिमें दोनोंको मूलहेतु माना है। इतना ही नहीं है। इस कारण उनके हृदयमें जैनधर्मके प्रचारकी बलवती किन्तु उपादान और निमित्तको दण्यगत स्वभाव भी भावना जाग्रत है। वहाँसे अनेक प्राध्यात्मिक ग्रन्थोंका बतलाया है। यह सब होते हुए भी सोनगढ़गुजराती और हिन्दीमें प्रकाशन हुआ है । उन्हींकी में अध्यात्मचर्चाका प्रवाह बराबर चल रहा है । प्रेरणाके फलस्वरूप सोनगढ़ जैसे स्थानमें निम्न उपादान निमित्त के सम्बन्धमें जिज्ञासुभावसे वस्तुका निर्णय ८ संस्थाएं चल रही हैं। १ सीमंधरस्वामोका मन्दिर। कर द्विषयक गुत्थीका सुलझा लेना चाहिए । कानजी २ श्रीसीमंधरस्वामीका समोसरण, समांसरणमें कुन्द- स्वामी भी दोनोंकी सत्ताको स्वीकार तो करते ही हैं। कुन्दाचार्य हाथ जोड़े खड़े हुए हैं। ३ स्वाध्यायमन्दिर, ४ अतः इस सम्बन्धमें विशेष ऊहापोहके द्वारा विषयका कुदकुन्दमण्डप,-जिसमें ३२ अलमारियोंमें. जैनसाहित्य निर्णय करलेनेमें हो बुद्धिमत्ता है। क्योंकि एकान्त ही भरा पड़ा है। ५ श्राविकाशाला। ६ अतिथिग्रह, जिस- वस्तुतत्त्वकी सिद्धि में बाधक है, अतः एकान्त इ.ष्टको छोड़ में बाहरके भागन्तुक व्यक्तियोंके लिए भोजनादिकी व्यव- कर अनेकान्तको अपनाना ही श्रेयस्कर है। यहां हम लोग स्था है। • गोग्गीदेवी दि. जैन श्राविका ब्रह्मचर्याश्रम, दो-तीन दिन ठहरे, समय बड़ा ही आनन्दसे व्यतीत हुश्रा। जिसे सेठ तुलाराम वच्छराजजी कलकत्ताने डेढलाख रु० सोनगढ़से हम लोंग पालीताना (शत्रुजय ) की यात्रालगा कर बनवाया है। इसमें ब्रह्मचारिणी शान्ताबहिन को गये। अध्यापनादि कार्य कराती हैं। संगमर्मरका एक सुन्दर शत्रजयका दूसरा नाम पुण्डरीक कहा जाता है। मानस्तम्भ,-जिसकी प्रतिष्ठा अभी हाल में सम्पन्न हुई है। यह क्षेत्र दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें मान्य स्वाध्याय मन्दिरमें कानजी स्वामीका दो बार प्रवचन एक बाह्य तरोपाधि समग्नतेयं एक घंटे होता है। प्रवचनके समय प्रवचनम निर्दिष्ट ग्रन्थ कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः । श्रोताओंके सामने होते है जिससे विषयको समझने में नेवाऽन्यथा मोक्ष विधिश्च पसां मुविधा होती है। प्रवचनकी श्रामभाषा गुजराती होती है तेनाऽभिवन्यस्त्वमृषिबुधानाम् ॥६॥ स्वयंभूस्तोत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527320
Book TitleAnekant 1953 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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