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________________ किरण ६ . ऋषभदेव और शिवजी |१८७ पुरुष वासनामें फंसकर उसका दुरुपयोग कर डालते हैं। जिनमूर्तियोंके प्रासनमें त्रिशूल पर ही धर्मचक्र का चित्राइस उल्लेखसे ब्रह्मचर्यमय योगनिष्ठाकी पुष्टि होती है। ङ्कण किया गया है । अत: त्रिशूल सम्यग्दर्शन, ऋषभ पूर्ण ब्रह्मचारी रहकर अमृत्वको पान करके ही ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय धर्मका प्रतीक है, जिसके द्वारा शिवरूप बने थे। रेणु वीर्यके दुरवस्थित होने पर उसको संसार-व्यालको छेद दिया जाता है। शिवके रूप में सौब्रह्मचर्य द्वारा हो उर्जस्वरेत करके जीवित बना दिया जाता का प्रयोग मिलता है। जैन परम्परामें सर्पका विशिष्ट है। ऋषभ अनन्तवीर्यके भोक्ता इसी प्रकार हुये थे। स्थान है। प्राचीनकाल में कुछ लोग उसे ज्ञानका प्रतीक रेणुकाके पुनर्जीवन पानेका रहस्य यही है। मानते थे, जो अज्ञानके लिये कालरूप था। ऋषभदेव शिवके विषपानका रहस्य भी ऋषभकी योगचर्या में अनन्तज्ञानके भोक्ता थे जिसके फलस्वरूप ज्ञानगंगा छिपा हुआ है। निघण्ट्में जलके १०१ नाम दिए गए प्रवाहित हुई थी। शिवजीकी जटामें गंगाका वास माना हैं। उनमें विष और अमृत भी जलके पर्यायवाची शब्द ही जाता है। ऋषभमूतियों की यह एक विलक्षणता है हैं एवं वीर्य या रेत भी जलका ही रूप है। अतः वीर्यसे कि उनके कन्धों पर जटायें उत्कीर्ण की जाती हैं। शिवदेवी और प्रासरी अर्थात अमृत रूप और विषरूप कि वाहन बृष (बेल) ही ऋषभका भो चिह्न है। इस प्रकार प्रकट होती है। प्रात्मविनाशकी प्रवृत्ति प्रासरीशक्ति विष- 'शिवपुराण' के उक्त श्लोकमें जो ऋषभको शिव कहकर रूपकी द्य.तक है शिवने उसे जीत लिया था। पुण्य । उल्लेखित किया है. वह सार्थक है। भारतीय परम्परामें और पाप रति और परति सब पर ऋषभने विजय पायी यह विश्वास एक समय प्रर्चालत रहा प्रतीत होता है कि थी। अतः शिवका विषपानप्रसंग उनकी समवृत्तिका ऋषभ ही शिव हैं, क्योंकि साहित्यके साथ साथ शिवकी द्योतक है, जिसमें प्रासुरी वृत्ति पछाड़ दी गई थी। ऐसी मूतियाँ भी बनाई गई, जो बिल्कुल ऋषभ मूर्तिसे . भस्मासुरके त्रिपर शरीरके बाहर नहीं थे। वह मानव मिलती-जुलती हैं। इन्दौर संग्रहालयमें इस प्रकारकी एक की मनवचन कायिक योगक्रियाएँ थी, जिन पर अधिकार मूर्ति है। उसका चिन्न यहाँ मध्यभारत पुरातत्व विभागके पाये बिना कोई भी योगी जीवन्मुक्त परमात्मदशाको सौजन्यसे उपस्थित किया जाता है। पाठक उसे देखकर नहीं पा सकता। ऋषभदेवने मनदण्ड, वचनदण्ड और यह भ्रम न करें कि वह जैन मूर्ति है। यह शिवकी मूर्ति कायदण्ड द्वारा इन विपरियोंको जीत लिया था उनकी है, परन्तु उसका परिवेष जिनमूर्तिके अनुरूप है। यह अधोवृत्तिको नष्ट कर दिया था। इसीलिये उन्हें शिव होना कुछ विचित्र नहीं ? क्योंकि ऋषभको ही ब्राह्मणोंकहकर याद किया गया है। शिव और जैनोंने पहला तीर्थकर माना था। ऋषभकी तरह ही शिव दिगम्बर कहे गये हैं। शिव शुद्धलेश्यारूपी त्रिशूलसे मोहरिपुको नष्ट कर दिया है त्रिशूलधारी थे । भारतीय पुरातत्वमें त्रिशूल चिह्नका प्रयोग 'शुद्धलेश्यात्रिशूलेम मोहनीयरिपुर्हतः ।' पहले पहले जैनोंने किया था। ईस्वी पूर्व दूसरे शतादिके हाथीगुफा लेखमें वह मिलता है और कुशाणकालीन - २ 'बंगाल, बिहार, उड़ीसाके जैन स्मारक' और श्री रविषेणाचार्यने जिनेन्द्रके लिए लिखा था कि श्रीमहावीरस्मृतिग्रन्थ पृष्ट २२७-२२६ में देखें। अनेकान्तको २५१) रुपया प्रदान करने वाले संरक्षकों और १०१) रुपया देने वाले स्थायी सहायकों को सदा अनेकान्त भेंट स्वरूप दिया जाता है। Jain Education Intomational For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527320
Book TitleAnekant 1953 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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