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बतार कहते हैं। वह इसलिये कि प्रापन आदिकाल से एक महान तपस्वी रहे और वैदिक ऋषियोंको उनकी तपस्याका बखान श्रलंकृतभाषा में करना श्रभीष्ट रहा । किन्तु उनके इस रहस्यपूर्ण स्वरूपको जानने वाले लोगोंका प्रभाव एक बहुत पहले जमानेसे हो गया | महाकवि कालीदासजी इस सत्यसे परिचित थे । इसलिये ही उन्होंने कहा कि 'शिवको यथार्थ रूपसे जानने वाले धीर अनुभव करने वाले मनुष्य कम हैं! ( न संति याथार्थविदः पिनाकिनः ) कुमारसम्भव १/७७) प्रतीकवादको समझ लेना हर एकका काम नहीं। प्रतीक अथवा अलंकारका सहारा इसलिये लिया गया प्रतीत होता है कि अध्यात्मिक सत्यकी ओर हर किसीकी रुचि नहीं होती । वैदिक क्रियाकांडमें व्यस्त लोगों में जिनको पात्र पाया उन्हीं को यह रहस्य बताया गया ।
अनेकान्त
जैन शास्त्रकारोंने स्पष्ट लिखा है कि ऋषभदेवने कैलाश पर्वत पर घोर तपस्या की थी। जिस समय वह तपस्यारत हो श्रात्मध्यानमें मग्न थे उस समय सुरांगनाथोंने उनके शोखकी परीक्षा ली थी; परन्तु ऋषभ तो वासनाको जीत चुके थे और समाधिमें लीन थे कामदेव के बेधक बाण उन्हें समाधिसे च्युत न कर सक— उल्टे उन्हें शरीर मन्दिर में स्थित परमात्मतत्वके दर्शन कराने में वह साधक बने। वैदिक परम्परामें स्पष्ट कहा गया है कि शिवने कामदेवको भस्म कर दिया था। पावतीने जब रवि
भको यों नष्ट होते देखा तो उन्होंने माना कि शिवकी पानेके लिये सुन्दरता पर्याप्त नहीं है। अतएव उन्होंने a द्वारा आत्मसमाधि लगाना निश्चित किया, क्य कि समाधिको पूर्णता ही शिवतत्वको प्राप्त कराती है । १ चित्र मित्र यदि ते नामन मनागपि मनो न विकारमार्गम्। कल्पांतकालमस्ता चलिताचलेन किं मंदराद्विशिखरं चलितं कदाचित् ॥५॥ -भक्तामर स्तोत्र
२ तथा समर्थ दहता मनोभवं, पिनाकिना भग्नमनोरथा सति । निनिंद रूपं हृदयेन पार्वती, प्रियेषु सौभाग्यफलाहि चारुता ॥ इयेष सा कमवन्ध्यरूपता, तपोभिरास्थाय समाधिमात्मनः ।
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[करण ६
डा० वासुदेवशरणजी अग्रवालने 'पार्वती' को प्रतीक मानकर उसके रहस्यको स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा कि मानवशरीर में मेरुदडकी रचना सैंतीस पथके संयोग हुई है । 'पर्व' जिसमें हो उसीको 'पर्वत' कहते हैं । 'पर्वासिंति अस्निमिति पर्यंत' इसीलिये मेरुदण्ड पर्यंत हुआ और इसके भीतर रहने वाली शक्तिको उपचार से 'पर्वत राजपुत्री' या 'पाती' कहा जाता है। इस पातीपार्वतीकी स्वाभाविक गति शिवकी ओर है। पार्वती शिवको छोड़कर और किसीका वरण कर ही नहीं सकती। परन्तु पार्वतीको शिवकी सम्प्राप्ति तपके द्वारा ही हो सकती हैं, भोगके मार्ग से नहीं अर्थात् छद्मस्थावस्थामें ज 'शिवस्व' पानेके लिए उन्मुख थे उस समय काययोगकी साधनाके लिए उन्होंने तपका श्राश्रय लिया था। कायगुप्तिका पालन करके काथाजनित कमजोरीको जीतकर उन्होंने पर्वतीय (मेरुदण्ड में सुप्त ) शक्तिको जागृत किया था । इसीलिये अलंकृत भाषा में कहा जाता है कि शिवपार्वतीका विवाह हुआ था ! वस्तुतः वह उक्त प्रकारका एक रहस्यपूर्ण प्रतीक ही है।
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शिवका मुख्य कर्म संहार माना है निस्सन्देद सांसा रिक प्रवृत्तिका संहार किये बिना निवृत्तिमार्गका पर्यटक नहीं बनाया जा सकता। ऋषभदेवने प्रवृत्तिका मार्ग त्यागा था और योगचर्याको अपनाया था। कर्म-प्रकृतियोंका सम्पूर्ण संहार करके ही वह शिवश्वको प्राप्त हुए थे। इसलिये उन्हें शिव कहना ठीक है।
शिवलिङ्ग पूजाका अर्थ अध्यात्मकरूपमें अमृतत्वको पा लेना है, किन्तु आज कोई भी इस मूढ़ार्थको नहीं समझता विषयी लोग उसमें वासनाकी छाया देखते हैं। वस्तुता वह अमृतानन्दका बोधक है। प्राचीन भारतीय मान्यतामें मस्तिष्कको कलश या कुम्भ कहा गया है। मस्तिष्क से निरन्तर मृतका चरण होता रहता है, जिसे योगीजन पीकर अध्यात्मिकतायें निमग्न हो जाते हैं और विष पी
अवाप्यते वा कथमन्वधाइयं
तथाविधं प्र म पतिश्च तादृशः ॥
३ डा० सा० ने कल्याण में 'शिवका स्वरूप' शीर्षक लेख प्रकट करके शिव प्रतीकका रहस्योद्घाटन किया है। उनके इस लेख आधारसे ही यह विवेचन किया ज्ञा रहा है, एद हम उनके आभारी है।
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