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________________ ऋषभदेव और शिवजी (ले० श्रीयुत बा० कामताप्रसाद जैन एम पार०ए०डी० एल) इत्थं प्रभाव ऋषभोऽवतार राकरस्य मे। अतः उनके चरित्र में ऐसी बात तो नहीं पा सकती जिसे सतां गतिर्दीनबन्धुर्नवमः कथितस्तवनः ॥७॥ साधारणतः मानव समाजमें दुराचार माना जाता है। -शिवपुराण शिव देव हैं-आराध्य हैं, तो वह एक सामान्य लम्पटी 'शिवपुराण'के रचियता कहते हैं कि इस प्रकार ऋषभा पुरुषकी तरह कामी नहीं हो सकते; इतने उग्र कामरत कि वतार होगा, जो मेरे लिए शंकर शिव हैं । वह सत्पुरुषोंके उनके शिश्नको उत्तेजनाको शान्त रखनेके लिये पूर्ण कुम्भलिये सत्यपथ रूप नवमें अवतार और दीनबन्धु होंगे' , से शीतल जल विन्दु हर समय टपकती रहे । इसके साथ इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि शिवजीका अलंकृतरूप मूलतः कोई भी समझदार पुरुष यह नहीं मान सकता कि शिव ऋषभदेवजीके तेज और तपस्याका काव्यमयी वर्णन हैं। मद्यपायी और भंगड़ी थे । वह इतने क्रोधी थे कि उन्होंने वैदिक ऋषियोंने ऋषभदेवकी उग्र तपस्याको मूर्तिमयी भस्मासुरको नगरों सहित भस्म कर दिया और पार्वतीजीबनानेके लिए एवं उसे ही.अमृतत्व पा का कारण जताने को संग लिये फिरे ! न वह इतने भयंकर थे कि विष खा के लिये उसे 'शिव' के नामसे पुकारा है। वेदोंमें 'शिव' जाते ! उनके देवत्वके समक्ष ये बातें अशोभन दिखती हैं। नामके देवताका पता नहीं। यह अभाव इसीलिये कि फिर एक अचम्भेकी बात है कि रेणुका मरकर जीवित ऋषभ अवैदिक श्रमणं परम्पराके अग्रणी थे। जब वैदिक हई भी उनके प्रसंग कही गई है! इस बुद्धिवादीयुगमें पार्योंने श्रमणोपासक जातियोंसे मेलजोल पैदा किया तब अन्धश्रद्धाके लिये कोई स्थान नहीं है। अतएव शिवजीके वैदिक परम्परामें नये नये देवता भी लिये गये । शिव, विषयमें उक्त बातें जो कही गई हैं उनको शब्दार्थ में ग्रहण ब्रह्मा और विष्णु प्रतीकवादके द्योतक हैं। उपरान्त क्षत्रियों नहीं किया जा सकता । उनसे शिवजीकी महत्तामें बट्टा के प्रभावमें अवतारबादको वैदिकपुरोहितोंने अपनाया. भाता है। वे अलङ्कार हैं और अलङ्कारका घूघट उठाकर जिससे राम और कृष्णकी पूजा प्रचलित हुई । प्रतीकवादमें हमें उनके मूल स्वरूपका दर्शन करना उचित है। ऋषभको शिवका रूप दिया गया। यहाँ हमें यही देखना लगभग दो हजार वर्ष पहलेका लिखा हा एक अभीष्ट है। पत्रक Letter of Aristeas) विद्वानोंको मिला है। .' भ. ऋषभने कैलाशपर्वत पर उग्र तप तपा था। उसमें लिखा है प्राचीनकालमें एक चित्र शैली ( Sym. एक बार देव बालाओंने उनकी तपस्या भंग करनेके लिए bolic) की भाषा और लिपि ( Pictographicकामदेवके बाणोंका प्रयोग किया था; किन्तु ऋषभदेव language and script) का प्रचलन था। विद्वान अचल रहे और अन्त में उन्होंने कामको ही नष्ट कर दिया। ऋषि लोग उस शैलीका आश्रय लेकर अध्यात्मवादका उसके साथ ही मन-वचन काय दण्ड द्वारा उन्होंने त्रिग्र- निरूपण किया करते थे, जिसे वह अपने शिष्योंको बता न्थियोंका पूर्णनाश कर दिया कि वह 'निर्ग्रन्थ' हो गये। देते थे। गुरु शिष्य परम्परासे यह रहस्यवाद मौखिकपूर्व संचित कर्म जो शेष रहे थे, उनको भी उन्होंने भस्म प्रणाली द्वारा धारावाही चलता रहा। किन्तु एक समय कर दिया था। परिणाम स्वरूप वह कैवल्यपति सच्चि- पाया जब इस रहस्यको लोग भूल गये! 'मनर्थका हि दानन्द, जीवन्मुक्त परमात्मा शिव होकर चमके । उन्होंने मन्त्रः' की बात वैदिक टीकाकारोंको बरवस कहनी पड़ी! धर्मतीर्थ की स्थापना की-इसलिए 'वृष' (बैल) उनका बाइबिल में विद्वानोंको इसलिये धिक्कारा गया कि उन्होंने चिन्ह माना गया! संक्षेपमें ऋषभदेवजाकी तपस्याकी ज्ञानकी कुंजीको खो दिया। (Woe into ye laयह वालिका है। wyers ye have lost the 'key of know'अब पाठक, आइये शिवजीके चरित्र चित्रण पर leodge) इस साक्षीसे शिवजीका अलंकृत रूप स्पष्ट रष्टिपात कीजिये। वह देव है-प्राप्त हैं और हैं पूज्य । भाषता है और 'शिवपुराण' के रचयिता उन्हें ऋषभा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527320
Book TitleAnekant 1953 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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