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________________ १८४] अनेकान्त [किरण ६ गम्य है. जैसाकि सन्मतिसूत्रके अन्त में उसकी मंगलकामना तीसरे, विविध नयभंगोंको प्राश्रय देने और स्याद्वादके लिये प्रयुक्त किये गये निम्न चाक्यसे प्रकट है न्यायके अपनाने के कारण जिनशासन सर्वथा एक रूपमें भई मिच्छादसण समूहमइयस्स अमियसारस्स। स्थिर नहीं रहता-वह एक ही बातको कहीं कभी निश्चय जिरावयणस्स भवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥३७॥ नयकी दृष्टिसे कथन करता है तो उसीको अन्यत्र व्यवहार नयकी दृष्टि से कथन करने में प्रवृत्त होता है और एक ही इस तरह जिनशासनका 'अनन्य' विशेषण नहीं विषयको कहीं गौण रखता है तो दूसरी जगह उसीको बनता । 'नियत' विशेषण भी उसके साथ घटित नहीं होता, मुख्य बमाकर आगे ले पाता है। एक ही वस्तु जो एक क्योंकि प्रथम तो सब जिनों-तीर्थकरोंका शासन फोनोग्राफ नयदृष्टिसे विधिरूप है वही उसमें दूसरी नयदृष्टिसे निषेध के रिकार्ड की तरह एक ही अथवा एक ही प्रकारका नहीं रूप भी है, इसी तरह जो निस्यरूप है वही अमस्यरूप है अर्थात् ऐसा नहीं कि जो वचनवर्गणा एक तीर्थकरके भी है और जो एक रूप है वही अनेकरूप भी हैं इसी मुंहसे खिरी वही जची-तुली दूसरे तीर्थकरके मुंहसे निकली हो-बल्कि अपने अपने समयकी परिस्थिति आवश्यकता सापेक्ष नयवादमें उसकी समीचीनता संनिहित और सुर क्षित रहती हैं, क्योंकि वस्तुतत्व अनेकान्तारमक हैं । इसीसे और प्रतिपाद्योंके अनुरोधवश कथनशैलीको विभिन्नताके उसका व्यवहारनय सर्वथा अभूतार्थ या असत्यार्थ नहीं साथ रहा कुछ कुछ दूसरे भेदको भी वह लिये हुए रहा है, होता यदि व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ होता तो श्री जिसका एक उदाहरण मूलाचारको निम्न गाथासे जाना जिनेन्द्रदेव उसे अपनाकर उसके द्वारा मिथ्य: उपदेश क्यों जाता है देते? जिस व्यवहारनयके उपदेश अथवा वक्तव्यसे सारे वावीसं तित्थयरा सामाइयं संजम उवदिसति । जैनशास्त्र अथवा जिनागमके अंग भरे पड़े हैं। वह तो नोवटावणियं पण भयव उसहो य वीरो य ।।७-३२॥ निश्यनयकी दृष्टिमें अभूतार्थ है, ज कि व्यवहारनंयकी इसमें बतलाया है कि 'अजितसे लेकर पार्श्वनाथ दृष्टिमें वह शुद्धनय या निश्चय भी अभूतार्थ-असत्यार्थ पर्यन्त बाईस तीर्थंकरोंने 'सामायिक' समयका और ऋषभ- है जोकि वर्तमानमें अनेक प्रकारके सदृढ़ कर्म बन्धनोंसे देव तथा वीर भगवानने 'छेदोपस्थापना' संयमका उपदेश बंधे हुए, नाना प्रकारकी परतन्त्रताओंको धारण किये हये, दिया है। अगली गाथाओं में उपदेशकी इस विभिन्नताके भवभ्रमण करते और दुःख उठाते हुए संसारी जीवात्माओंको कारयको, तात्कालिक परिस्थितियोंका कुछ उल्लेख करते सर्वथा कर्मबन्धनसे रहित अबद्धस्पृष्टादिके रूप में उल्लेखित हए, स्पष्ट किया गया है तथा और भी कुछ विभिन्नताओं करता है और उन्हें पूर्णज्ञान तथा प्रानन्दमय मला का सकारण सूचन किया गया है। इस विषयका विशेष जो कि प्रत्यक्षके विरुद्ध ही नहीं किन्त या परिचय प्राप्त करनेके लिये 'जैनतीर्थंकरोंका शासनभेद' आगममें प्रात्माके साथ कर्मबन्धनका बहत विस्तार नामक वह लेख देखना चाहिए जो प्रथमतः अगस्त सन् वर्णन है। जिसका कुछ सूचन कुन्दकुन्दके समयमाने १६१६ के 'जैन.हितैषी' पत्रमें और बादको 'जैनाचार्योंका प्रन्थों में भी पाया जाता है। यहाँ प्रसंगवश इतना और शासनभेद' नामक ग्रन्थके परिशिष्टमें 'क-ख' में परिवर्ध प्रकट किया जाता है कि शुद्ध या. निश्चयनयको द्रव्यार्थिक नादिके साथ प्रकाशित हुआ है और जिसमे दिगम्बर तथा और व्यवहारनयको पर्यार्थिकनय कहते हैं। ये दोनों श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंके अनेक प्रमाणोंका संकलन है मूलनय पृथक रह कर एक दूसरेके वक्तव्यको किस दृष्टिसे देखते हैं और उसदृष्टि से देखते हुए सम्यग्दृष्टि है या साथ ही, यह भी प्रदर्शित किया गया है कि उन भेदोंके कारण मुनियोंके मूलगुणोंमें भी अन्तर रहा है। मिथ्यदृष्टि, इसका अच्छा विवेचन श्री सिद्धसेनाचार्यने अपने सन्मतिसूत्रकी निम्न गाथाओंमें किया हैदसरे जिनवाणीके जो द्वादश अंग हैं उनमें अन्तः कृश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्न व्याकरण और दृष्टिवाद दव्वट्ठिय वत्तन्वं अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स। वैसे कुछ अंग ऐसे हैं जो सब तीर्थंकरोंकी वाणीमें एक तह पज्जवत्थ अवत्थुमेव दध्वट्टियणयास ॥१०॥ ही रूपको लिये हुए नहीं हो सकते। उपज्जति वियंतिय भावा पज्जवणयस्स । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527320
Book TitleAnekant 1953 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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