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________________ [ किरण ६ में जिनशासनके स्थान पर उसी तरह किया है जिस तरह कि 'जिनवाबी' और 'भगवानकी वाणी' जैसे शब्दोंका किया है। इससे जिन भगवानने अपनी दिव्य वाणी में जो कुछ कहा है और जो तदनुकूल बने हुये सूत्रों शास्त्रों में निबद्ध है वह सब जिनशासनका अंग है इसे खूब ध्यान में रखना चाहिये । समयसारकी १वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी मैं श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत समयसारके शब्दों में ही यह बतला देना चाहता हूँ कि श्रीजिनभगवानने अपनी वाणी में उन सब विषयोंकी देशना ( शास्ति ) की है जिनकी ऊपर कुछ सूचना दी गई है। वे शब्द गाथाके नम्बर सहित इस प्रकार हैं: ववहारस्य दरीस मुवएसो वरदो जिरणवरेहिं । जीवा एदे सब्वे श्रज्मवसाणादश्रो भावा ॥ ४६ ॥ एमेत्र य ववहारो श्रवसायादि 'अण्णभावाणं । जीवो त्ति कदो सुत्ते ••••••••••·|||| ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया । गुणठाता भावादु केई च्छ्रियणयस्स ॥ ५६ ॥ तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदु वराणां । जीवस्स एसवरणो जिणेहिं वबहार दो उत्तो ॥ ५६ ॥ एवं गंधर सफासरूवा देहो संठाण माइया जे य । सब्वे ववहारस्य यच्यिदरहू ववदिसन्ति ॥ ६० ॥ पज्जताऽपज्जता जे सुहमा वादरा य जे चेव । देहस्स जीवणा सुत्ते ववहारदो उत्ता ॥ जीवस्सेवं बंबो भणिदो खलुसन्नदर सीहिं ॥ ६७ ॥ ७० ॥ वेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गियहृदि य । दा पुग्दवं वारणयस्य वत्तत्र्त्रं ॥ १०७ ।। जावे क्रम्मं चद्धं पुट्ठ ं चेदि ववहारणयभणिदं । सुद्रणयरस दु जीवे श्रबद्धपुट्ठे हवइ जीवो ॥१०१॥ सम्मत्तपडिणिबद्ध मिच्छत्तं जियारेहिं परिकहियं । तरसोदय ज वो मिच्छादिट्टि त्तिणायन्वो ॥ १६१ ॥ वायरस पडिणिबद्ध अय्यायं जिरणवरेहिं परिकहियं । तस्सोदा जीवो भवयायी होदि गायग्दो ॥ १६२ ॥ चास्ति पडविद' प्रयाणं जिणबरेहिं परिकहियं । तरसोदय जीबो श्रवणायी होदि यायन्वो ॥ १६३ ॥ तेसिंहेऊ मविदा प्रभवसायाणि सव्वदर सीहिं । asgi भरवायं अविरयभावो य जोगो य ॥ १७० ॥ उदयविवागो विविहो कम्मायं वरिओ जिणवरेहिं ॥ ब्राडक्स्वयेण मरण जीवायं जिणवरेहिं परणतं ॥ २४८ ॥ Jain Education International [ १८३ आऊदयेण जीविद जीवो एवं भांति मन्वराहू | २५१ अज्मव सिदेश बंधो सत्ते मरेड मा व मारेड । एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणस्स ॥२६२ वद समिदी गुत्ती सीलतवं जिरणवरेहिं परमत्तं । कुग्वंतो वि श्रभन्यो प्रणाली मिच्छदिट्टी दु ॥ २७३ एवं वत्रहारस्स दु वत्तवं दरिम समामेण । सुणु खिच्छयम्स वयणं परिणामकथं तु जं होई ॥ ३५३ ववहारियो पुण गओ दोयिण वि लिंगाणि भगइ मोक्खपडे पिच्छयरणओ ण इच्छइ मोक्खपहे सम्बलिंगाणि ॥४४ इन सब उद्धरणोंसे तथा श्री कुन्दकुन्दाचार्यने अपने प्रवचनसार में जिनशासनके साररूप में जिन जिन बातोंका उल्लेख अथवा संसूचन किया है उन सबको देखने से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि एकमात्र शुद्धारमा जिन शासन नहीं है, जिनशासन निश्चय और व्यव हार दोनों नयों तथा उपनयोंके कथनको साथ साथ लिये हुए ज्ञान, ज्ञेय और चरितरूप सारे अर्थ समूहको उसकी सब अवस्थाओं सहित अपना विषय किये हुए I यदि शुद्ध श्रात्मा को ही जिनशासन कहा जाय तो शुद्धात्मके जो पाँच विशेषण - श्रबद्ध स्पृष्ट. अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त — कहे जाते हैं वे जिनशासनको भी प्राप्त होंगे। परन्तु जिनशासनको श्रवम्पृष्टादिक रूपमें कैसे कहा जा सकता है ? जिनशासन जिनका शासन अथवा जिनसे समुद्धत शासन होनेके कारण जिसके साथ सम्बन्ध है जिस अर्थ समूहकी प्ररूपणाको वह लिये हुए है उसके साथ भी वह सम्बन्ध है, जिन शब्दों के द्वारा समूहकी प्ररूपणा की जाती है उनके साथ भी उसका सम्बन्ध है ! इस तरह शब्द समय, अर्थसमय और ज्ञान समय तीनोंके साथ जब जिनशासनका सम्बन्ध है तब उसे अस्पृष्ट कैसे कहा जा सकता है। नहीं कहा जा सकता । और कर्मोंके बन्धनादि की तो उसके साथ कोई कल्पना ही नहीं बनती जिससे उस दृष्टिके द्वारा उसे श्रबद्धस्पृष्ट कहा जाय । 'अनम्य' विशेषण भी उसके साथ घाटत नहीं होता; क्योंकि वह शुद्धात्माको छोड़कर अशुद्धानाच art अनात्माओं को भी अपना विषय किये हुए है अथवा यों कहिए कि वह अन्यशासनों मिथ्यादर्शनों को भी अपने में स्थान दिये हुए हैं। श्री सिद्धसेनाचार्यके शब्दोंमें तो वह जिन प्रवचन 'मिथ्यादर्शनों का समूहमय' है, इतने पर भी भगवत्पदको प्राप्त है, अमृतका सार है और संवि सुखाभि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527320
Book TitleAnekant 1953 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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