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अनेकान्त
किरण ६
अनन्य होती है वह 'नियत' अवश्य होती है इस कारण था वह कहा गया है । अब आगे उसीपर विचार अनभ्य कह देनेसे नियतपना आ ही गया । इस ही तरह किया जाता है। अविशेष कहनेसे असंयुक्तपना श्रा ही गया ! संयोग विशे- श्रीकानजी स्वामी महाराजका कहना है कि 'जो शुद्ध षोंमें ही हो सकता है सामान्यमें नहीं-सामान्य तो दो प्रात्मा वह जिनशासन है' यह आपके प्रवचनका मूल दुग्योंका सदा ही जुदा जुदा रहता है । संयुक्तपना किसी सूत्र है जिसे प्रवचन लेख में अग्रस्थान दिया गया है और द्रग्यके एक विशेषका दूसरे द्रव्यके विशेषसे एकत्व हो इसके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि शुद्धामा जाना है। श्रीकुन्दकुन्दने क्रम भंग करके अपनी (निर्माण) और जिन शासनमें अभेद है-अर्थात् शुद्ध प्रात्मा कहो कलाका प्रदर्शन किया है और गाथा नं. १५ में भी शुद्ध- या जिनशासन दोनों एक ही हैं, नामका अन्तर है, जिननयके पूर्णस्वरूपको सुरक्षित रक्खा है। अविशेष और
शासन शुद्धामाका दूसरा नाम है। परन्तु शुद्धारमा तो असंयुक्तका इस प्रकारका सम्बन्ध अन्य तीन विशेषणोंसे
जिनशासनका एक विषय प्रसिद्ध है वह स्वयं जिनशासन नहीं है जिस प्रकारका नियतका अनन्यसे असंयुक्तका
अथवा समग्र जिनशासन कैसे हो सकता है जिनशासनके अविशेषसे है।
और भी अनेकानेक विषय हैं, अशुद्धारमा भी उसका शुद्धात्मदर्शी और जिनशासन
विषय है, पुद्गल धर्म अधर्म प्रकाश और काल नामके प्रस्तुत गाथामें प्रास्माको प्रबद्धस्पृष्टादि रूपसे देखने
शेष पाँच द्रव्य भी उसके विषय हैं. कालचक्रके अवसर्पिणी
उत्सर्पिणी श्रादि भेद-प्रभेदोंका तथा तीन लोककी रचना वाले शुद्धास्मदीको सम्पूर्ण जिनशासनका देखनेवाला
का विस्तृत वर्णन भी उसके अन्तर्गत है। वह सप्ततत्वों बतलाया है। इसीसे प्रथमादि चार शंकानोंका सम्बन्ध है। पहली शंका सारे जिनशासनको देखनेके प्रकार तरीके
नवपदार्थों, चौदह गुणास्थानों, चतुर्दशादि जीवसमासों,
षट्पर्याप्तियों, दस प्राणों, चार संज्ञाओं, चौदह मार्गणाओं अथवा दंग (पद्धति) आदिसे सन्बन्ध रखती है. दूसरीमें उस द्रष्टा द्वारा देखे जानेवाले जिनशासनका रूप पूछा गया
द्विविध चतुर्विध्यादि उपयोगों और नयों तथा प्रमाणोंकी है. तीसरीमें उस रूपविशिष्ट शासनका कुछ महान्
भारी चर्चाओं एवं प्ररूपणाओंको आत्मसात् किये अथवा प्राचार्यों-द्वारा प्रतिपादित अथवा संसूचित जिनशासनके
अपने अंक (गोद) में लिए हुए स्थित है। साथ ही साथ भेद-भेदका प्रश्न है, और चौथीमे भेद न होनेकी
मोक्षमार्गकी देशना करता हुश्रा रत्मत्रयादि धर्म-विधानों, हालतमें यह सवाल किया गया है कि तब इन अचार्यों
कमार्गमथनों और कर्मप्रकृतियोंके कथनोपकथनसे भरपूर द्वारा प्रतिपादित एवं संसूचित जिनशासनके साथ उसकी
है। संक्षेपमें जिनशासन जिनवाणीका रूप है. जिसके
द्वादश अंग और चौदह पूर्व अपार विस्तारको लिए हुए संगति कैसे बैठती है। इनमें से पहली, तीसरी और चौथी इन तीन शंकाओंके विषयमें प्रवचन प्रायः मौन है। उसमें प्रसिद्ध हैं। ऐसी हालतमें जब कि शुखात्मा जिनशासनकी बार-बार इस बातको तो अनेक प्रकारसे दोहराया गया है
एकमात्र विषय भी नहीं है तब उसका जिनशासनके साथ कि जो शुद्धमात्माको देखता-जानता है वह समस्त - एकत्व केसे स्थापित किया जा सकता। उसमें तो जिनशासनको देखता-जानता है अथवा उसने उसे देख- गुणस्थाना तथा मागणाम
गुणस्थानों तथा मार्गणाओं मादिके स्थान तक भी नहीं हैं जान लिया; परन्तु उन विषेषणोंके रूपमें एद्वात्माको जैसा कि स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारमें प्रतिपादन देखने जानने मात्रसे सारे जिनशासनको कैसे देखता किया है । यहाँ विषयको ठीक हृदयङ्गम करने के लिए जानता है या देखने-जानने में समर्थ होता है अथवा
इतना और भी जान लेना चाहिए कि जिनशासनको जिनकिस प्रकारसे उसने उसे देख-जान लिया है, इसका
वाणी की तरह जिनप्रवचन जिनागम शास्त्र, जिनमत कहीं भी कोई स्पष्टीकरण नहीं है और न भेदाभेदकी
जिनदर्शन, जिमतीर्थ, जिनधर्म और जिनोपदेश भी कहा बानको उठाकर उसके विषयमें ही कुछ कहा गया
जाता है-जैनशासन, जैनदर्शन और जैनधर्म भी उसीके है सिर्फ दूसरी शंकाके विषयभूत जिनशासनके रूप- नामान्तर हैं, जिनका प्रयोग भी स्वामीजीने अपने प्रवचन विषयको लेकर उसके सम्बन्धमें जो कुछ कहना • देखो, समयसार गाथा १२ से १५। .
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