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किरण ६ ]
'अपवेससंतमज्झ' । इस संसूचित तथा दूसरे प्रचलित पदमें परस्पर बहुत ही थोड़ा सिर्फ एक अक्षरका अन्तर हैइसमें 'वे' अक्षर है तो उसमें 'दे', शेष सब ज्योंका त्यों है। लेखकों की कृपासे 'वे' का दे' लिखा जाना अथवा पन्नोंके चिपक जाने श्रादिके कारण 'वे' का कुछ अंश उड़कर उसका दे' बन जाना तथा पढ़ा जाना बहुत कुछ स्वाभा विक है। इस संसूचित पदका अर्थ 'अनादिमध्यान्त' होता है और यह विशेषण शुद्धात्माके लिये अनेक स्थानों पर प्रयुक्त हुआ है, जिसके कुछ उदाहरण शंकामें नोट किये गये हैं और फिर पूछा गया है कि यदि पदका यह सुझाव ठीक नहीं है तो क्यों ? ऐसी स्थिति में चलित पद और तद्विषयक यह सुकाव विचारणीय जरूर हो जाता है । इस तरह तीन शंकाएँ प्रचलित पदके रूपादि विषयसे सम्बन्ध रखती हैं, जिन्हें प्रवचन लेखमें विचार के लिये छुश्रा तक भी नहीं गया - समाधानकी तो बात ही दूर है यह उस लेखको पढ़कर पाठक स्वयं जान सकते हैं। हो सकता है कि स्वामीजीके पास इन शंकाओं के समाधान विषय में कुछ कहने को न हो और इसीसे उन्होंने अपने उस वाक्य ( ' जो कुछ कहना होता हैं उसे प्रवचन में ही कह देता हूँ' ) के अनुसार कुछ न कहा हो । कुछ भी हो, पर इससे समयसारके अध्ययनकी गहराईको ठेप जरूर पहुँचती हैं।
समयासारकी १ वीं गाथा और श्रीकानजो स्वामी
यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि. गत वर्ष सागर में वर्णीजयन्तीके अवसर पर धौर इस वर्ष खास इन्दौर में यात्रा के अवसर पर मेरी इस पदके रूपादि-विषय में पं० वंशीधरजी न्यायलंकार से भी' जो कि जैन सिद्धान्तके एक बहुत बड़े ज्ञाता हैं, चर्चाआई थी, उन्होंने उक्त सुझावको ठीक बतलाते हुए कहा कि हम पहले से इस पदको 'अप्पा' पदका विशेषण मानते आए हैं, और तब इसके 'अपदेससुतमज्यं' (अप्रदेशसूत्रमध्यं ) रूपको लेकर एक दूसरे ही ढंगसे इसके 'अनादिमध्यान्त' अर्थकी कल्पना करते थे (जो कि एक क्लिष्ट कल्पना थी । अब इसके प्रस्तावित रूपसे अर्थ बहुत ही स्पष्ट तथा सरले (सहज बोधगम्य) हो गया है। साथ हीं वह भी बतलाया कि श्री जयसेनजीने इस पदका जो अर्य किया है और उसके द्वारा इसे 'जियसासयां' पदका विशेषण बनाया है वह ठीक तथा संगत नहीं है ।
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गाथाके अर्थ में अतिरिक्त विशेषण
प्रस्तुत गाथाका अर्थ करते हुए उसमें श्रात्मा के लिये पूर्व गाथा प्रयुक्त 'नियत' और 'श्रसंयुक्त' विशेषणों को उपलक्षणसे ग्रहण किया जाता है, जो कि इस गाथा में प्रयुक्त नहीं हुए । इन्हीं अप्रयुक्त एवं अतिरिक्त विशेषणोंके ग्रहणसे शंका नं० ८ का सम्बन्ध है और उसमें यह जिज्ञासा प्रकट की गई है कि इन विशेषणोंका ग्रहण क्या मूलकारके आशियानुसार है ? यदि है तो फिर १४वीं गाथा में प्रयुक्त हुए पाँच विशेषणों को इस गाथामें क्रमभंग करके क्यों रखा गया है जब कि १४ वीं गाथा के पूर्वार्धको ज्योंका त्यों रख देने पर भी काम चल सकता था श्रर्थात् शेष दो विशेषणों 'अविशेष' और 'संयुक्त' को उपलक्षण द्वारा ग्रहण किया जा सकता था ? और यदि नहीं है तो फिर अर्थ में इनका ग्रहण करना ही श्रयुक्त है। इस शंकाको भी स्वामीजीने अपने प्रवचन में छूचा तक नहीं है, और इसलिए इसके विषय में भी वही बात कही जा सकती हैं, जो पिछली तीन शंकाओंके विषय में कही गई है अर्थात् इस शंका के विषय में भी उन्हें कुछ कहने के लिए नहीं होगा और इसीसे कुछ नहीं कहा गया ।
यहाँ पर एक बात और प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि कुछ अर्सा हुआ मुझे एक पत्र रोहतक (पू पंजाब )
डाक द्वारा प्राप्त हुआ था जिस पर स्थान के साथ पत्र लिखने की तारीख तो है परन्तु बाहर भीतर कहीं से भी पत्र भेजने वाले सज्जनका कोई नाम उपलब्ध नहीं होता । संभवतः वे सज्जन बाबू नानकचन्दजी एडवोकेट जान पढ़ते हैं, जी कि समयसारकी स्वाध्यायके प्रेमी हैं और उस प्रेमी होनेके नाते ही पत्र में कुछ लिखनेके प्रयासका उल्लेख भी किया जाता है। इस पत्र में श्राठबीं शंकाके विषय में जो कुछ लिखा है उसे उपयोगी समझ कर यहाँ उदष्टंत किया जाता है
“ गाथा नं० १५ के पहले चरण में जो क्रम भंग हैं वह बहुत ही रहस्यमय हैं। यदि गाथा नं० १५ में गाथा नं० १४ का पूर्वार्ध दे दिया जाता तो दो विशेषण श्रविशेष' और 'संयुक्त' छूट जाते । ये विशेषण किसी दूसरे विशेषणके उपलक्षण नहीं हो सकते। क्रमभंग करने पर दो विशेषण 'नियत' और 'असंयुक्त' छूटे हैं सो इनमेंसे 'नियत' विशेषण तो 'अनन्य' का उपलक्षण है । जो वस्तु
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