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किरण ६ ]
हैं, जो जैनियोंके प्रमाद और धार्मिक शिथिलताकी द्योतक हैं। क्या जैन समाज अपनी गाढ़ निन्द्राको भंग कर पुरातत्व के संरक्षणकी ओर ध्यान देगा ?
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
निर्वाणकामें
इस पावागढ़ क्षेत्र से रामचन्द्रजीके दोनों पुत्र लव कुश तथा लाडदेशके राजा और पाँच • करोड़ मुनियोंके निर्वाणका पवित्र स्थान बतलाया गया है इस सम्बन्ध में भी अन्वेषणकी आवश्यकता है । पावागढ़ चल कर हम लोग उतरोद होते हुए दाहोद पहुँचे और दि० जैन बोर्डिंग हाउसमें हरे । वहाँ पवित हरिश्चन्दजीने हम लोगोंक ठहरने की व्यवस्था की नशियांजीका स्थान सुन्दर है वहाँ भगवान महावीर स्वामीकी एक मनोग्य एवं विशाल मूर्तिके दर्शन कर सिमें बड़ी हुई और सफरके उन सभी कष्टों को भूल गए जो सफर करते हुए उठाने पड़े।
दाहोद सन् १४१६ ( वि० स० १४७६ ) तक बाहरिया राजपूतोंके आधीन रहा। किन्तु सुलतान अहमदने । राजा डूंगरको परास्त कर दाहोद पर अधिकार कर लिया । सन् १९७३ में अकबर बादशाहके अधीन रहा । सन् १६१६ में शाहजहाँने औरङ्गजेब के जन्मके सन्मानमें कारवा सराय बनवाई थी। बादमें सन् १७५० वि०स० १८०० में सिधियाक कब्जे में बाया और सन् १८०३ में अंग्रेज सरकारने उसपर कब्जा कर लिया यह पहले अच्छा बड़ा नगर रहा है । दाहोद से सुबह चार बजेसे हमलोग बड़वानी [बावनगजा] को यात्रा के लिए चले। और ११ बजेके करीब हमलोग नरवदा नदीके घाट पर पहुँच गए। वहाँसे बारीको पार करने में २ घन्टेका बिलम्ब हुआ, बालाजी जमादारको शहरमें इजाजत लेने के लिए भेजा गया। उनके सरकारी भाज्ञालेनेसे पूर्व हम सब लोगोने नहा धोकर भोजन बनाना प्रारम्भ किया । लालाराजकृष्णनी और सेठ दामीलालजी की कारे नदीके उस पार पहुँच गई और वे बढ़वानीमें दि० जैन बोर्डिग हाउसमें ठहरे बाबूलाल जीके धाने पर लारीका सामान उतार कर पहले नावद्वार। सामान उस पार भेजा गया, बादमें बारीको गाय पर चढ़ा कर उसपार भेजा और एक नाव में हम सब लोग पार उतरे। इसके लिए हमें १० ) रामसुधा विषय जया वाडनरिदाय भट्टकोढीथी। पाचार गिरि सिहरे पिया गया यमो तैसि ॥१॥
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० के करीब किराया देना पड़ा। वहांसे सामान मोटर पर चढ़या कर हम लोग ३ बजेके करीब बडवानी वर्डिंगहाउसमें ठहरे । यहाँ पं० क्षेमंकरजी न्यायतीर्थं योग्य विद्वान तथा मिलनसार व्यक्ति है। उन्होंने हम लोगोंके ठहरनेकी वस्था की तथा गेहूँ और अच्छे घीकी भी व्यवस्था करा दी बोर्डिंगहाउसमें छात्र अंग्रेजो और संस्कृतकी शिक्षा प्राप्त करते हैं। हम लोगोंने वहाँ २२ में कुछ खाने घण्टे पीनेका सामान खरीदा और विद्यार्थी ज्ञानचन्द्रादिको साथ में लेकर चूलगिरिकी यात्रार्थ चल दिए । वहाँ धर्मशाला के पास जारीको खड़ाकर हम लोग पढाइको यात्रा करनेके लिए चले। और हमने ता० २० फरवरी सन् १६५३ को शाम को सात बजे यात्रा प्रारम्भ की। और दो तीन घण्टे में सानन्द यात्रा सम्पन्न की । यात्रामें जितना आनन्द आया, वहाँ ठहरनेके लिये समय कम मिलने से कष्टभी पहुंचा; क्योंकि वहाँ अनेक पुरानी मूर्तियाँ मौजूद हैं। जो १० वीं ११ वीं शताब्दीकी जान पड़ती हैं। कितनी ही ऐतिहासिक सामग्री छन भिन्न पड़ी है परन्तु छिन्न क्षेत्र के प्रबन्धकोंने उसे संगृहीत करनेका प्रयत्न ही नहीं किया, केवल पैसा संचित करने और धर्मशाला वा मानस्तम्भादिके निर्माण में उसे खर्च कर देनेका ही प्रयत्न किया गया है । परन्तु क्षेत्र के इतिहासको खोज निकालने और पुरानी मूर्तियाँ तथा अवशेषोंका संग्रह कर उनके संरक्षणा करने की ओर ध्यान ही नहीं दिया गया, जिसकी ओर क्षेत्र मुनीमका ध्यान आकर्षित किया गया।
चूलगिरिमें सबसे सबसे प्रधानमूर्ति आदिनाथजी की है जिसे बावनगजाजीके नामसे भी पुकारा जाता हैं । श्रब इस मूर्तिके ऊपर छतरी होनेके कारण मधुमक्खियोंका कुता लगा हुआ है। यह मूर्ति म४ फीटकी ऊँची बतलाई जाती है मूर्ति सुन्दर है, कलापूर्ण भी है परन्तु वह उतनी आकर्षक नहीं है जितनी श्रवणबेलगोलकी मूर्ति है ।
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चूलगिरि बडवानीसे दक्षिण दिशा में है। बडवानी छोटीसी रियासत की राजधानी रही है । चूलगिरिमें ऊपर और नीचे पहाड़ पर कुल २२ मन्दिर है। निर्वाणकाण्ड में बडवानीसे दक्षिण दिशामें चूलगिरि - शिखर से इन्द्रजीत और कुम्भकर्णादि मुनियोंकि मुक्त होनेका उल्लेख है। जिससे इस क्षेत्रको भी निर्वाण क्षेत्र कहा जाता है। दिगम्बर जैन डायरेक्टरी में लिखा है कि 'बडवानी' पुराना नाम नहीं है लगभग ४०० वर्ष पूर्व इसका नाम 'सिद्ध
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