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[ किरण ६
विद्वानोंको चाहिये कि इस क्षेत्र के सम्बन्ध में श्रन्वेषण किया जाय, जिससे यह मालूम हो सके कि यह स्थान कितना पुराना है और नाम क्या था, इसे पावागिरि नाम कब और क्यों दिया गया ? यह एक विचारणीय विषय है जिस पर श्रन्वेषक विद्वानोंके विचार करना आवश्यक है।
हमारी तीर्थयात्रा संस्मरण
उनसे चल कर हम लोग धूलिया थाए । यहाँ से ला० राजकृष्ण जी और सेठ छदामीलालजी 'माँगीतुंगी' की tara लिये चले गए। हम लोग धूलिया से सीधे गजपंथ श्रये। और रात्रि में एक बजेके करीब धर्मशाला में पहुँचे । वहाँ जाकर देखा तो धर्मशाला दिल्ली और ललितपुर आदि के यात्रियोंसे ठसाठस भरी हुई थी । किसी तरहसे दहलान में बाहर सामान रख कर दो घंटे श्राराम किया । और प्रातःकाल नैमित्तिक क्रियाओंसे फारिग होकर यात्राको चले ।
यह गजपन्थ तीर्थं नूतन संस्कारित है । सम्भव है पुराना गजपन्थ नासिकके बिलकुल पास ही रहा हो, जहाँ यह वर्तमान में है वहाँ न हो। पर इसमें सन्देह नहीं कि गजपन्थ क्षेत्र पुराना है ।
गजपन्थ नामका एक पुराना तीर्थ क्षेत्र नासिक के समीप था । जिसका उल्लेख ईसाकी ५ वीं और विक्रमकी छठी शताब्दी के विद्वान श्राचार्यं पूज्यपाद (देवनन्दी) ने अपनी निर्वाणभक्तिके निम्न पथमें किया है:
* नासिक पुराना शहर है। यहाँ रामचन्द्रजीने बहुतसा काल व्यतीत किया था, कहा जाता है कि इसी स्थान पर रावणकी बहिन सूर्पणखाकी नासिका काटी गई थी इसीसे इसे नासिक कहा गया है । नासिक में ` ईस्वी सन्के दो सौ वर्ष बाद अंधभृत्य, बौद्ध, चालुक्य, राष्ट्रकूट चंडोर यादववंश और उसके बाद मुसलमानों, महाराष्ट्रों और अंग्रेजोंका राज्य कासन रहा है । यह हिन्दुओंका पुरातन तीर्थं है । -यह गोदावरी नदीके बायें किनारे पर बसा हुआ पंचवटीका मन्दिर भारतमें प्रसिद्ध ही है । दिगम्बर जैनग्रंथों में भी नासिकका उल्लेख निहित है । आचार्य शिवार्य की भगवती श्राराधनाको १३५8वींकी गाय नासिक्य या नासिक नगरका उल्लेख मिलता है। भगवती श्राराधना ग्रन्थ बहुत प्राचीन है ।
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'सह्याचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे, दण्डात्मके गजपथे पृथुसारयष्टौ । ये साधवो हतमलाः सुगतिं प्रयाताः स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूवन् ॥३०॥' पूज्यपादके कई सौ वर्ष बाद होने वाले श्रसग कविने जो नागनन्दी श्राचार्यके शिष्य थे । उन्होंने अपना 'महावीर चरित' शक संवत् ३१० ( वि० सं० १०४५ ) में बना कर समाप्त किया था । असगने अपने शान्तिनाथ पुराणके सातवें सर्गके निम्न पद्यमें गजपन्थ या 'गजध्वज' पर्वतका उल्लेख किया है x |
अपश्यन्नापरं किंचिद्रक्षोपायमथात्मनः । शैलं गजध्वजं प्रापन्नासिक्यनगरादहिः ॥ ६८ ॥ विक्रमकी १६ वीं शताब्दीके विद्वान ब्रह्मक्षुतसागरने, जो भ० विद्यानन्दके शिष्य थे । अपने बोधप। हुड़की टीका में २७वें नम्बरकी गाथाकी टीका करते हुए- ऊर्जयन्त-शत्रु - जय - लाटदेश पावागिरि, श्राभीरदेश तुरंगीगिरि, नासिक्य नगरसमीपवतिगजध्वज - गजपन्थ सिद्धकूटगजध्वज या गजपन्थका उल्लेख किया है । इतनाही नहीं किन्तु ब्रह्मभ तसागरने 'पल्लविधानकथा' की अन्तिम प्रशस्ति में जिसे ईडर के राजा भानुभूपति, जो 'रावभाणजी' के नामसे प्रसिद्ध थे, यह राठौर राजा रावपूजाजीके प्रथम पुत्र और रावनारायणदासजीके भाई थे । सं० १५०२ में गुजरात के बादशाह मुहम्मदशाह द्वितीयने ईडर पर चढ़ाई की थी, तब उन्होंने पहाड़ों में भागकर अपनी रक्षा की, और बाद में सुलह कर ली थी । इन्होंने सं० १५०२ से १५५२ तक राज्य किया है। इनके मंत्री भोजराज हूमडबंशी थे, उनकी पत्नी विनयदेवी थीं । उनके चार पुत्र थे और एक पुत्री । ब्रह्मश्रुतसागरने संघ सहित इनके साथ गजपंथकी यात्रा की थी और सकलसंघको दान भी दिया था यथा
यात्रां चकार गजपन्थगिरौ स संघातत्तपो विदधती सुदृढव्रता सा सच्छान्तिकं गणसमर्थन महंदीश नित्यार्चनं सकलसंघ सदत्तदानं ॥४६॥ इससे स्पष्ट पता चलता है कि विक्रमकी १६ वीं शताब्दी में 'गजपन्थ' क्षेत्र विद्यमान था और उसकी यात्रार्थ X देखो, अनेकान्त वर्ष ७ - किरण ७-८ में पं० नाथूरामजी प्रेमीका लेख ।
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