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[ किरण ६
३६१ क
४०७ ख
४०२ क
४०५ ख
४७४ ख
४३५ क
४३६ क
४३८ क
४३८ ख
.४४१ क
४४२ ख
४५४ ख
४५७ क
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गंगीजा
डिलिय
दि
४०८ ख
४१० क
४१२ क
४१४ ख
४१५ क
४१७ क
४२१ क
४२२ क
४२६ ख
४२६ ख
४३० क
४३१ - सारीकी सारी गाथा-.
दुत्थं
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19
कराविए
गिविसिऊ
विहिं
विविदे हिं
उच्चाह
गेस्स
य
तिसट्ठि
खिविज्जि
पइट्ठय
इंडिय
वसुनन्दि श्रावकाचारका पाठ संशोधन
गंगा (1)
दलिय (२)
दिय
कंडुड
अहवा
सत्तीए
39
कराबए
वेिसिऊण
तिथि (३)
विविदेहिं
उच्चार
गिहस्स
कणवीर-मल्लिया चयार मचकुन्द किं किराएहिं । सुरवध्यजूहिया पारिजाय जासण वारेहिं ॥ थालि पोहामिय
कप्पूर परिमलायत्ति
पूई
धूत्रदहणाइ
जागरणं
+
सेसद्रि
खिवेज्ज
पह
यि (४)
थाल
पोहुमिय ( १ )
तुरुक्क (६) परिमलापत्त (७)
पूर
भूयाणाईवि (८)
जागरं
अहव
भत्तीए
टीका पुस्तकाकार संतपरुप या पृष्ठ १४ । १ श्रंगैः ग्राह्या देखो धवला संत० पृष्ठ ६ । २ पटलितः श्राच्छादित । ३ त्रिविल- तबला वादित्र । ४ सुप्रमार्जित भूसा साफ किया हुआ। प्रभापुजके द्वारा सूर्य तेजकी उपमाको प्राप्त । ६ गाथामें तंद पद हैं जिसका अर्थ कपूर होता है अतः तुरुक्क-लोबाण पद संगत है । ७ सुगन्धिके कारण चारों ओर प्राप्त हुए हैं भ्रमर जिनके ऐसी । 5 पूजाके खर्च के लिए खेत जमीनका दान आदि ।
४५६ ख
४६० ख
४६१ ख
154
ख
99
६६६ ख
४६६ ख
४७२ क
४७२ ख
४७३ क
४८१ ख
४८३ क
४८१ क
४६४ ख
५०० ख
५०१ ख
१०८ क
१११ ख
५११ ख
५२७ क
५२६ क
५३३ ख
१३४ क
१३८ क
२४१ ख
२४१ ग
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५४६ क
जं विषयं
जिहवं (1)
तिरियम्मं तिरियर बीए तिरियम्मि य
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विजया गीवं
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बुिद्ध तो
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परिउडो
तिब्वयर (१०)
विमा
वयण-तरुण
काले
अच्छरसाओ
उड़य (11)
पंचसु य श्रट्टगुण
सकं
वीरिए य
णाम
अट्ठगुणें
सिम्झइ
वीरिए
णामा
कवाड दंड यितणुपमाणंच, कवाडदंड
समाच
कायए
तीसु
करेइ
लीलारतियो
वरणि
पण्णासु
परिशिष्ट-संशोधन !
-
व्यावर भवनकी प्राचीनतम ग्रन्थ प्रतियों परसे स्पष्ट है कि ग्रंथकारको द्वितीय तृतीय आदि संस्कृत शब्दोंके वियय आदि प्राकृतरूप जो प्राकृत व्याकरयके नियमानुसार वर्गके प्रथम तृतीय व्यंजनको लोप करके अश्रुति और यश्रुतिपरक होते हैं- इष्ट थे और सम्पादक जीने ऐसे शब्दों को जो मूल पाठ में स्थान न देकर उन्हें
६ देखों गुणभूषण श्रा० का वाक्य टिप्पणी में | १० तीव्रतर । (नकि तीर्थंकर) ११ मज्जन ।
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