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[किरण ६
जिनशासन उसीने सर्व भावश्चतज्ञान त-1 ग्यश्रतज्ञानको जाना है। महीं है। प्रारमा शुद्ध विज्ञानधन है, वह बाह्ममें शरीरादिकी भिन्न भिन्न अनेक शास्त्रोंमें अनेकप्रकारकी शैलीसे कथन क्रिया नहीं करता; शरीरकी क्रियासे उसे धर्म नहीं होता; किया हो; परन्तु उन सर्व शास्त्रोंका मूल तात्पर्य तो पर्याय कर्म उसे विकार नहीं करता और न शुभ-अशुभ विकारी बुद्धि छुड़ाकर ऐसाशुद्ध पारमाही बतलानेका है। भगवान- भावोंसे उसे धर्म होता है। अपने शुद्ध विज्ञानवन स्वभावके की वाणीके जितने कथन हैं उन सबका सार यही है कि प्राश्रयसे ही उसे वीतरागभावरूप धर्म होता है। जो जीव शुद्ध श्राम्माको जानकर उसका श्राश्रय करो। जो जीव ऐसे शुद्ध प्रात्माको अन्तरमें नहीं देखता और कर्मके ऐसे शुद्ध प्रात्माको न जाने वह अन्य चाहे जितने शास्त्र निमित्त प्रास्माकी अवस्था में होनेवाले क्षणिक विकार जानता हो और व्रतादिका पालन करता हो, तथापि उसने जितना ही आत्माको देखता है वह भी जैनशासनको नहीं जैनशासनको नहीं जाना है।
देखता; कर्मके साथ निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध रहित जो जैनशासनमें कथित प्रात्मा जब विकाररहित और सहज एकरूप शुद्ध ज्ञानस्वभावी आत्मा है उसे जीव कर्मके सम्बन्ध रहित है, तब फिर इस स्थल शरीरके शुद्धनयसे देखता है उसीने सर्व शास्त्रोंके सारको समझा है। आकारवाला तो वह कहाँसे हो सकता है ? जो ऐसे ' (१) जैनशासनमें कर्मके साथ निमित्त-नैमित्तिक श्रात्माको नहीं जानता और जड़-शरीरके श्राकारसे आत्मा
सम्बन्धका ज्ञान कराते हैं। परन्तु जीवको वहीं रोक रखने
सम्बन्धका ज्ञान करात है; परन को पहिचानता है उसने जैनशासनके श्रात्माको नहीं जाना का उसका प्रयोजन नहीं है वह तो उस निमित्त नैमित्तिक है। वास्तवमें भगवानकी वाणी कैसा भात्मा बतलानेमें
सम्बन्धकी दृष्टि छुड़ाकर असंयोगी अात्मस्वभावकी दृष्टि निमित्त है-अबद्धस्पृष्ट एकरूप शुद्ध प्रात्माको भगवान
कराता है। इसलिये कहा है कि जो जीव कर्मके सम्बन्ध की वाणी बतलाती है; और जो ऐसे आत्माको समझता
रहित पास्माको देखता है वह सर्व जिनशासनको देखता है। है वही जिनवाणीको यथार्थतया समझा है । जो ऐसे (२) मनुष्य, देव, नारकी इत्यादि पर्यायोंसे देखने पर अबद्धस्पृष्ट भूतार्थ आत्मस्वभावको न समझे वह जिनवाणी अन्य अन्यपना होने पर भी प्रात्माको उसके ज्ञायक स्वभाको नहीं समझा है। कोई ऐसा कहे कि मैंने भगवानकी वसे एकाकार स्वरूप देखना ही जैनशासनका सार है। वाणीको समझ लिया है परन्तु उसमें कथितभावको पर्यायष्टिसे श्रास्मामें भिन्न-भिन्नपना होता अवश्य है और (-प्रबद्ध-स्पृष्ट शुद्ध आत्मस्वभावको) नहीं समझ पाया, शास्त्रोंमें उसका ज्ञान कराते हैं। परन्तु उस पर्याय जितना -तो श्राचार्यदेव कहते हैं कि वास्तवमें वह जीव ही प्रात्मा बतलानेका जैनशासनका श्राशय नहीं है; किन्तु भगवानकी वाणीको भी नहीं समझा है और भगवानकी एकरूप ज्ञायक विम्ब श्रात्माको बतलाना ही शास्त्रोंका वाणीके साथ धर्मका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध उसके सार है; तथा ऐसे आत्माके अनुभवसे ही सम्यग्ज्ञान होता प्रगट नहीं हुआ है। स्वयं अपने प्रात्मामें शुद्ध आत्माके है। जिसने ऐसे आत्माका अनुभव किया उसने द्रव्यश्रुत अनुभवरूप नैमित्तिकभाव प्रगट नहीं किया उसको भगवान और भावश्रुतरूप जैनशासनको जाना है। की वाणी धर्मका निमित्त भी नहीं हुई; इसलिये वह (३) प्रास्माकी अवस्थामें ज्ञान-दर्शन-वीर्य इत्यादि वास्तवमें भगवानकी वाणीको समझा ही नहीं है। की न्यूनाधिकता होती है, परन्तु ध्रु वस्वभावसे देखने पर भगवानकी वाणीको समझ लिया ऐसा कब कहा जाता आत्मा हीनाधिकतारहित सदा एकरूप निश्चल है। पर्याहै कि जैसा भगवानकी वाणीमें कहा है वैसा भाव यकी हीनाधिकताके प्रकारोंका शास्त्रने ज्ञान कराया है। अपने में प्रगट करे तभी वह भागवानकी वाणीको समझा परन्तु उसी में रोक रखनेका शास्त्रका प्राशय नहीं है। है और वही जिनशासनमें आ गया है। जो जीव ऐसे क्योंकि पर्यायको अनेकताके आश्रयमें रुकनेसे एकरूप शुद्ध मात्माको न जाने वह जैनशासनसे बाहर है।
आत्माका स्वरूप अनुभवमें नहीं पाता । शास्त्रोंका प्राशय बाह्ममें जड़ शरीरकी क्रियाको आत्मा करता है और तो पर्यायका- व्यवहारका आश्रय छुड़वाकर नियत-एकउसकी क्रियासे आत्माको धर्म होता है-ऐसा जो देखता रूप ध्र व प्रात्मस्वभावका अवलम्बन करानेका है, उसीके हैं ( मानता है) उसे तो जैनशासनकी गंध भी नहीं है। अवलम्बनसे मोक्ष मार्गकी साधना होती है। ऐसे मामतथा कर्मके कारण आत्माको विकार होता है या विकार- भावका अवलम्बन लेकर अनुभव करना सो जेनशासनका भावसे प्रास्माको धर्म होता है-यह बात भी जैनशासनमें अनुभव है। पर्यायके अनेक भेदोंकी दृष्टि छोड़कर अभेद
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