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अनेकान्त
[ किरण ६
दृष्टिसे शुद्ध प्रास्माका अनुभव करना-वह शास्त्रोका
- देखो, यह अपूर्व कल्याणकी बात है! यह कोई साधाअभिप्राय है।
रण बात नहीं है। यह तो ऐसी बात है कि जिसे समझने (४) भगवानके शास्त्रोंमें ज्ञान-दर्शन-चारित्र इत्यादि से अनादिकालीन भवभ्रमणका अन्त श्रा जाता है गुण भेदसे प्रारमाका कथन किया है; परन्तु वहाँ उन भेदों- प्रारमाकी दरकार करके यह बात समझने योग्य है ब्राह्म के विकल्पमें जीवको रोक रखनेका शास्त्रोंका प्राशय नहीं क्रियासे और पुण्यभावसे पारमाको लाभ होता है-ऐसा है; भेदका अवलम्बन छुड़ा कर अभेद आत्मस्वभावको मानने की बात तो दूर रही; यहाँ तो कहते हैं कि हे जीव ! बतलाना ही शस्त्रोंका प्राशय है। भेदके आश्रयसे तो तू उस बाह्यक्रियाको मत देख, पुण्यको मत देख, किन्तु रागकी उत्पति होती है और राग वह जैनशासन नहीं है। अपने अन्तरमें ज्ञानमूर्ति आत्माको देख । 'पुण्य है सो मैं इसलिए जो जीव भेदके लक्षसे होने वाले विकल्पोंसे लाभ हूँ।'-ऐसी दृष्टि छोड़कर 'मैं ज्ञायकभाव है-ऐसी मानकर उनके श्राश्रयमें रुके और पारभाके अभेद-स्वभावका दृष्टि कर । देहादिकी बाह्यक्रियासे और पुण्यसे भी पार श्राश्रय न करे वह जैनशासनको नहीं जानता है। अनन्त ऐसे अपने ज्ञायक-स्वभावी पास्माका अन्तरमें अवलोकन गुणोंसे अभेद आत्मामें भेदका विकल्प छोड़कर, उसे अभे- करना ही जैनदर्शन है । इसके अतिरिक्त लोग व्रत-पूजादस्वरूपसे लक्षमें लेकर उसमें एकान होनेसे निर्विकल्पता दिकको जनदर्शन कहते हैं, परन्तु वास्तव में वह जैनदर्शन होती है। यही समस्त तीर्थ करोंकी वाणीका सार है और नहीं है व्रत-पूजादिकमें तो मात्र शुभराग है और जैनधर्म यही जैनशासन है।
____तो वीतरागभाव-स्वरूप है। ५. प्रात्मा क्षणिक विकारसे असंयुक्त है; उसकी प्रश्न-कितनोंने ऐसा जैनधर्म किया है। अवस्थामें क्षणिक रागादिभाव होते हैं। उन रागादिभावों उत्तर-अरे भाई! तुझे अपना करना है दूसरोंका ? का अनुभव करना वह जैनशासन नहीं है। स्वभाव दृष्टिसे पहले तू स्वयं तो अपने प्रात्माको समझकर जैन हो; फिर देखने पर प्रात्मामें विकार है ही नहीं । क्षणिक विकारसे तुझे दूसरोंकी खबर पड़ेगी ! स्वयं अपने प्रास्माको समझअसंयुक्त ऐसे शुद्ध चैतन्यधन स्वरूपसे आत्माका अनुभव कर अपने प्रास्माका हित कर लेनेकी यह बात है। ऐसे करना ही अनन्त सर्वज्ञ-अरिहन्त परमात्माओंका हार्द और वीतरागी जनधर्मका सेवन कर-करके ही पूर्वकालमें अनंत संतोंका हृदय है; बारह अंग और चौदह पूर्वकी रचनामें जीवोंने मुक्ति प्राप्त की है, वर्तमानमें भी दुनिया में जो कुछ कहा है उसका सार यही है। निमित्त, राग या
असंख्य जीव इस धर्मका सेवन कर रहे हैं। महाभेदके कथन भले हों, उनका ज्ञान भी भले हो, परन्तु
विदेह क्षेत्रमें तो ऐसे धर्मकी पेढ़ी जोर-शोरसे चल रही उन्हें जानकर क्या किया जाये तो कहते हैं कि अपने
है; वहाँ साक्षात् तीर्थंकर विचर रहे हैं, उनकी दिव्यध्वनि प्रात्माका परद्रव्यों और परभावोंसे भिन्न अभेद ज्ञानस्व-
में ऐसे धर्मका स्रोत वहता है, गणधर उसे झेलते हैं,
सर भावरूपसे अनुभव करो; ऐसे प्रास्माके अनुभवसे ही पर्याय
इन्द्र उसका आदर करते हैं, चक्रवर्ती उसका सेवन करते में शुद्धता होती है। जो जीव इस प्रकार शुद्ध प्रास्माको हैं और भविष्य में भी अनंत जीव ऐसा धर्म प्रगट करके दृष्टि में लेकर उसका अनुभव करे वही सर्व सन्तों और
मुक्ति प्राप्त करेंगे। लेकिन उससे अपनेको क्या ? अपनेशास्त्रोंके रहस्यको समझा है।
को तो अपने पास्मामें देखना चाहिए। दूसरे जीव मुक्ति देखो यह शुद्ध प्रास्माके अनुभवकी वीतरागी कथा
प्राप्त करें उससे कहीं इस आत्माका हित नहीं हो जाता है! वीतरागी देव-गुरु-शास्त्रके अतिरिक्त ऐसी कथा
और दूसरे जीव संसार में भटकते फिरें उससे इस आत्माकौन सुना सकता है ? जो जीव वीतरागी अनुभवकी ऐसी
के कल्याणमें बाधा नहीं पाती। जब स्वयं अपने प्रात्माको कथा सुनाने के लिये प्रेमसे खड़ा है उसे जैन शासनके देव.
समझे तब अपना हित होता है । इस प्रकार अपने प्रास्माके गुरु शास्त्र पर श्रद्धा है और उनकी विनय तथा बहुमानका
लिये यह बात है, यह तत्व तो तीनों काल दुर्लभ है और शुभराग भी है; परन्तु वह कहीं जैनदर्शनका सार नहीं
इसे समझने वाले जीव भी विरले ही होते हैं। इसलिये है - वह तो बहिमुख रागभाव है। अन्तरमें स्वसन्मुख
स्वयं समझकर अपना कल्याण कर लेना चाहिए होकर, देव-गुरु शास्त्रने जैसा कहा है वैसे प्रास्माका राग
(-श्री समयसार गाथा १५ पर पूज्य स्वामीजीके रहिव अनुभव करना ही जैन-शासनका सार है।
प्रवचन से)
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