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किरण ६ ]
होने से पहले ही सभाभवनमें यह सूचना मिली कि 'आाजका प्रवचन समयसारकी १५ वीं गाथा पर मुख्तार साहबकी शंकाओं को लेकर उनके समाधान रूपम होगा ।' और इसलिये मैंने उस प्रवचनको बड़ी उत्सुकता के साथ गौरसे सुना, जो घंटा भरसे कुछ ऊपर समय तक होता रहा है। सुनने पर मुझे तथा मेरे साथियोंको ऐसा लगा कि इसमें मेरी शंकाओंका तो स्पर्श भी नहीं किया गया है— यों ही इधर-उधरकी बहुतसी बातें गाथा तथा गाथेतर-सम्बन्धी कही गई हैं। चुनाँचे सभाकी समाप्ति के बाद मैंने उसकी स्पष्ट विज्ञप्ति भी कर दी और कह दिया कि भाजके प्रवचनसे मेरी शंकायोंका तो कोई समाधान हुआ नहीं। इसके बाद एक दिन मैंने अलहदगीमें श्री कानजी स्वामी से कहा कि आप मेरी शंकाओंका समाधान लिखा दीजिए— और नहीं तो अपने किसी शिष्यको ही बोलकर लिखा दीजिए। इसके उत्तर में स्वामीजीने कहा कि 'न तो मैं स्वयं लिखता हूँ और न किसीको बोलकर लिखाता हूँ, जो कुछ कहना होता है उसे प्रवचनमें ही कह देता हूँ ।' इस उत्तरले मुझे बहुत बड़ी निराशा हुई, और इसीलिये यात्रा से वापिस आनेके बाद, अनेकान्तकी १२ वीं किरणके सम्पादकीयमें, ‘समयसारका अध्ययन और प्रवचन' नामसे मुझे एक नोट लिखनेके लिये बाध्य होना पड़ा, जो इस विषयके अपने पूर्वं तथा वर्तमान अनुभवोंको लेकर लिखा गया है और जिसके अन्त में यह भी प्रकट किया गया है कि
समयसारकी १. वीं गाथा और श्रीकानजी स्वामी
'निःसन्देह समयसार - जैसा प्रन्थ बहुत गहरे अध्ययन तथा मननकी अपेक्षा रखता है और तभी आत्म-विकास जैसे यथेष्ट फलको फल सकता है। हर एकका वह विषय नहीं है। गहरे अध्ययन तथा मननके अभाव में कोरी भावुकता में वहने बालों की गति बहुधा 'न इधरके रहे न उधरके रहे' वाली कहावतको चरितार्थ करती है अथवा वे उस एकान्तकी ओर ढल जाते हैं जिसे आध्यात्मिक एकांत कहते हैं और जो मिथ्यात्व में परिगणित किया गया है । इस विषयकी विशेष चर्चाको फिर किसी समय उपस्थित किया जायगा ।"
साथ ही उक्त किरणके उसी सम्पादकीय में एक नोटद्वारा, 'पुरस्कारोंकी योजना का नतीजा' व्यक्त करते हुए, यह इच्छा भी व्यक्त कर दी गई थी कि यदि क्रमसे दो विद्वान अब भी समयसारकी १२ वीं गाथाके सम्बन्धमें
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अभीष्ट व्याख्यात्मक निबन्ध लिखनेके लिए अपनी आमादगी १५ जून तक जाहिर करेंगे तो उस विषय के पुरस्कारकी पुनरावृत्ति करदी जाएगी अर्थात् निबन्धके लिये यथोचित समय निर्धारित करके पत्रोंमें उसके पुरस्कार की पुनः घोषणा निकाल दी जाएगी। इतने पर भी किसी विद्वानने उक्त गाथाकी व्याख्या लिखनेके लिए अपनी श्रामादगी जाहिर नहीं की और न सोनगढ़से ही कोई आवाज आई । और इसलिये मुझे अवशिष्ट विषयोंके पुरस्कारोंकी योजनाको रद्द करके दूसरे नये पुरस्कारोंकी ही योजना करनी पड़ी, जो इसी वर्ष के अनेकान्त किरण नं. २ में प्रकाशित हो चुकी है। और इस तरह उक्त गाथाकी चर्चाको समाप्त कर देना पड़ा था ।
हाल में कानजीस्वामी के 'आत्मधर्म' पत्रका नया आश्विनका अंक नं० ७ दैवयोगसे मेरे हस्तगत हुआ, जिसमें 'जिनशासन' शीर्षकके साथ कानजोस्वामीका एक प्रवचन दिया हुआ है और उसके अन्त में लिखा है- " श्री समयसार गाथा १५ पर पूज्य स्वामीजीके प्रवचनसे ।" इस प्रवचनकी कोई तिथि - तारीख साथमें सूचित नहीं की गई, जिससे यह मालूम होता कि क्या यह प्रवचन वही है जो अपने लोगोंके सामने ता० १२ फरवरीको दिया गया था
* 'दैवयोगसे' लिखनेका अभिप्राय इतना ही है कि 'आत्मधर्म' अपने पास या वीरसेवामन्दिरमें आता नहीं है, पहले वह 'अनेकान्त' के परिवर्तन में आता था, जबसे न्यायचार्य पं० महेन्द्रकुमारजी जैसोंके कुछ लेख स्वामीजीके मन्तब्योंके विरुद्ध अनेकान्तमें प्रकाशित हुए तबसे श्रात्मधर्मं अनेकान्तसे रुष्ट हो गया और उसने दर्शन देना ही बन्द कर दिया। पीछे किसी सज्जनने एक वर्ष के लिये उसे अपनी ओर से वीरसेवामन्दिर में भिजवाया था, उसकी अवधि समाप्त होते ही अब फिर उसका दर्शन देना बन्द है; जबकि अपना 'अनेकान्त' पत्र कई वर्ष से बराबर कानजीस्वामी की सेवामें भेंटस्वरूप जा रहा है। और इसलिए यह अंक अपने पास सोनगढ़के आत्मधर्म- आफिस से भेजा नहीं गया है—जबकि १५ वीं गाथाका विषय होनेसे भेजा जाना चाहिए था बल्कि दिल्ली में एक सज्जन के यहाँसे इत्तफाकिया देखनेको मिल गया है यदि यह अंक न मिलता तो इस लेख के लिखे जानेका अवसर ही प्राप्त न होता । इस अंकका मिलना ही प्रस्तुत लेखके लिखने में प्रधान निमित्त कारण है ।
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