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अनेकान्त
किरण ६
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(१) इस गाथामें 'अपदेससंतमज्म' नामक जो पद पाया पूर्वार्धको ज्योंका त्यों रख देने पर भी शेष.दो विशे..
जाता है और जिसे कुछ विद्वान् 'अपदेससुत्तमझ' पणोंको उपलक्षणके द्वारा ग्रहण किया जा सकता रूपसे भी उल्लेखित करते हैं.उसे जिणशासणं'पदका था। परन्तु ऐसा नहीं किया गया; तब क्या इसमें विशेषण बतलाया जाता है और उससे ग्यश्रत तथा कोई रहस्य है, जिसके स्पष्ट होनेकी जरूरत है। भावश्रतका भी अर्थ लगाया जाता है, यह सब कहाँ अथवा इस गाथाके अर्थमें उन दो विशेषणोंको ग्रहण तक संगत है अथवा पदका ठीक रूप, अर्थ और करना युक्त नहीं है। सम्बन्ध क्या होना चाहिए।
विज्ञप्लिके अनुसार किसी भी बिद्वानने उक्त गाथाकी । श्रीअमृतचन्द्राचार्य इस पदके अर्थ विषय में मौन हैं प्याग्याके रूपमें अपना निवन्ध भेजनेकी कृपा नहीं की,
और जयसेनाचार्यने जो अर्थ किया है वह पदमें यह खेदका विषय है। हालांकि विज्ञप्तिमें यह भी निवेदन __ प्रयुक्त हुए शब्दोंको देखते हुए कुछ खटकता हुआ किया गया था कि 'जो सज्जन पुरस्कार लेनेकी स्थिति में
जान पड़ता है. यह क्या ठीक है अथवा उस अर्थ में न हों अथवा उसे लेना न चाहेंगे उनके प्रति दूसरे प्रकारसे खटकने जैसी कोई बात नहीं है।
सम्मान व्यक्त किया जायगा। उन्हें अपने अपने इष्ट एवं (७) एक समाव यह भी है कि यह पद 'अपवेससंत- अधिकृत विषय पर लोकहितकी रष्टिसे लेख लिखनेका
मज्झ (अप्रवेशसान्तमध्यं है, जिसका अर्थ अनादि- प्रयत्न जरूर करना चाहिये।' इस निवेदनका प्रधान संकेत मध्यान्त होता है और यह 'अप्पाणं (बारमानं, उन स्यागी महानुभावों-शुल्लकों, ऐलकों.. मुनियों, पदका विशेषण है, न कि 'जिणसासणं' पदका। आत्मार्थिजनों तथा निःस्वार्थ-सेवापरायणोंकी ओर था जो शुद्धारमाके लिये स्वामी समन्तभद्रने रस्नकरण्ड (६) अध्यात्मविषयके रसिक हैं और सदा समयसारके अनुमें और सिद्धसेनाचार्यने स्वयम्भूस्तुति (प्रथमद्वात्रिं
चिन्तन एवं पठन-पाठनमें लगे रहते है। परन्तु किसी भी शिका)में 'अनादिमध्यान्त' पदका प्रयोग किया महानभावको उक्त निवेदनसे कोई प्रेरणा नहीं मिली है। समयसारके एक कलशमें अमृतचन्द्राचार्यने भी अथवा मिली हो तो उनकी लोकहितकी दृष्टि इस विषयमें • 'मध्याद्यन्तविभागमुक्त' जैसे शब्दों द्वारा इसी बातका चरितार्थ नहीं हो सकी और इस तरह प्रायः छह महीनेका उल्लेख किया है। इन सब बातोंको भी ध्यानमें समय यों ही बीत गया। इसे मेरा तथा समाजका एक लेना चाहिये और तब यह निर्णय करना चाहिये कि प्रकारसे दुर्भाग्य ही समझना चाहिये। क्या उक्त सुझाव ठीक है। यदि ठीक नहीं हैं तो
गत माघ मास (जनवरी सन् १९५३ में मेरा विचार क्यों?
वीरसेवामन्दिरके विद्वानों सहित श्री गोम्मटेश्वर बाहु() १४ वी गाथामें शद्धनयके विषयभूत आत्माके लिए बलीजीके मस्तकाभिषेकके अवसर पर दक्षिणकी यात्राका
पाँच विशेषणोंका प्रयोग किया गया है, जिनमेंसे हश्रा और उसके प्रोग्राममें खासतौरसे जाते वक्त सोनगढ़कुल तीन विशेषणोंका ही प्रयोग १९ वी गाथामें का नाम रक्खा गया और वहाँ कई दिन ठहरनेका विचार हा है, जिसका अर्थ करते हुए शेष दो विशेषणों- स्थिर किया गया; क्योंकि सोनगढ़ श्रीकानजीस्वामीमहा'नियत' और 'संयुक्त'को भी उपलक्षणके रूपमें राजकी कृपासे आध्यात्मिक प्रवृत्तियोंका गढ़ बना हुआ ग्रहण किया जाता हैतब यह प्रश्न पैदा होता है और समयसारके मध्ययन-अध्यापनका विद्यापीठ सममा कि यदि मूलकारका ऐसा ही प्राशय था तो फिर जाता है। वहाँ स्वामीजीसे मिलने तथा अनेक विषयोंके इस वीं गाथामें उन विशेषणोंको क्र भंग करके शंका-समाधानकी इच्छा बहुत दिनोंसे चली जाती थी,
रखनेकी क्या जरूरत थी? १४ वी गाथा * के जिनमें समयसारका उक्त विषय भी था, और इसीलिये 18 उक १४ वीं गाथा इस प्रकार है
कई दिन ठहरनेका विचार किया गया था। जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुटुं प्रणरणयं णियदं। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई जबकि १२ फर्वरीको मुबह प्रविसेसंमसंजुत्तं तं सुदण्यं वियाणीहि ॥१॥ स्वामीजीका अपने बोगोंके सम्मुख प्रथम प्रवचन प्रारम्भ
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