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अनेकान्त
किरण ६
सुन तककी प्राप्ति कराने वाली कुसमयोंके शासनका क्योंकि कोई भी सम्पन्नय ऐसा नहीं है जो नियमसे शुद्ध निवारक (सर्वथा एकान्तवादका प्रश्रिय लेकर शासवरूढ़ जातीय हो-अपने ही पक्षके साथ प्रतिबद्ध हो । जैसा बने हुए सब मिथ्यादर्शनोंके गर्वको चूर चूर करनेकी कि सिन्हसेनाचार्य के निम्न वाक्यसे प्रकट हैशक्ति से सम्पन्न)।
दम्वढिायोति सम्हाणात्थि णो रिएयम शुद्ध मातीयो। स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन और अकलंकदेव से ण य पज्जवडिओ णाम कोई भयणा उविसेसो ॥६॥ महान् जैनाचार्योक उपयुक्त वाल्योंसे जिनशासनकी विशे
. जो मय अपने ही पक्षके साथ प्रतिबद्ध हो वह षताओं या उसके सविशेषरूपका ही पता नहीं चलता
सम्यकनय न होकर मिथ्यानय है. प्राचार्य सिद्धसेनने बक्कि मुस शासनका बहुत कुछ मूलस्वरूप मूर्तिमान
उसे दुनिक्षिप्त शुद्धमय (अपरिशुद्धनम) बतलाया है होकर सामने पा जाता है। परन्तु इस स्वरूप कानमें
और लिखा है कि ग्रह स्व-पर दोनों पक्षोंका विघातक कहीं भी शुद्धात्माको जिनशासन नहीं बतलाया गया, यह मा देखकर यदि कोई सन्तन अक्त महान् प्राचाबों को, जो
हा पाँचवाँ 'संयुक्त' विशेषा, वह भी जिनशासन कि जिनशासन स्तम्भस्वरूप सम्ने खाते हैं, लौकिकजन'
के साथ लागू नहीं होता; क्योंकि जो शासन अनेक प्रकारके या 'अन्यमती' कहने लगे और यह भी कने बगे कि
विशेषोंसे युक्त है, अभेद भेदात्मक अर्थतत्त्वोंकी विविध 'उन्होंने जिनशासनको जाना या समझा तक नहीं तो
कथनीसे संगठित है, और अंगों मादिके बनेक. सम्बन्धोंको विज्ञपाठक उसे क्या कहेंगे, किन शब्दोंसे पुकारेंगे और
अपने साथ जोड़े हुए है उसे सर्वथा असंयुक्त कैसे कहा जा उसके ज्ञानकी कितनी सराहना करेंगे यह मैं नहीं जानता,
सकता है ? नहीं कहा जा सकता। विज्ञपाठक इस विषयके स्वतन्त्र अधिकारी हैं और इस
इस तरह शुदामा और जिनशासनको एक बतलानेसे लिये इसका निर्णय मैं उन्हीं पर छोड़ता हूँ। यहाँ तो मुझे
शुद्धामाके पाँच विशेषण जिनशासनको प्राप्त होते हैं वे जिनशासन सम्बन्धी इन उल्लेखों द्वारा सिर्फ इतना ही
उसके साथ संगत नहीं बैठते । इसके सिवा शुद्धात्मा केवलबतलाना या दिखलाना इष्ट है कि सर्वथा 'भविशेष'
ज्ञानस्वरूप है, जब कि जिनशासनके द्रव्यश्रुत और भावविशेषण उसके साथ संगत नहीं हो सकता। और
श्रुत ऐसे दो मुख्य भेद किये जाते हैं, जिनमें भावभु त उसीके साथ क्या किसीके भी साथ वह पूर्णरूपेण संगत नहीं
श्रतज्ञानके रूपमें है, जिसका केवलज्ञानके साथ और नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा कोई भी द्रव्य, पदार्थ या वस्तु तो प्रत्यक्ष परोक्षका भेद तो है ही। रहा द्रव्यश्रुत, बह विशेष नहीं है जो किसी भी अवस्थामें पर्याय भेद विकल्प
शब्दात्मक हो या अक्षरात्मक दोनों ही अवस्थाओंमें अब या गुणको लिये हुए न हो। इन अवस्था तथा पर्यायादिका
रूप है-ज्ञानरूप नहीं । चुनाचे श्री कुन्दकुन्दाचार्यने भी' नाम ही 'विशेष' है और इसलिये जो इन विशेषोंसे
सत्थं खाणं ण हवइ जम्हा सस्थं ण जाणाए किंचि। सर्वथा शून्य है वह श्रवस्तु है। पर्याय बिना द्रव्य और
तम्हा भए णाणं अण्ण सत्थं जिणाविति ॥' इत्यादि दम्बके बिना पर्याय होते ही नहीं. दोनों में परस्पर भविना
गाथाओंमें ऐसा ही प्रतिपादन किया है और शास्त्र तथा भाव सम्बन्ध है। इस सिद्धान्तको स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने
शब्दको ज्ञानसे भिन्न बतलाया है। ऐसी हालतमें शुद्धाभी अपने पंचास्तिकाय प्रन्यकी निम्न गाथामें स्वीकार
स्माके साथ द्रव्यश्रतका एकत्व स्थापित नहीं किया जा किया है और उसे श्रमणोंका सिद्धान्त बतलाया है। सकता और यह भी शुद्धास्मा तथा जिनशासमको एक पज्जव विजुदं दबं दबविजुत्ता य पज्जवा पत्थि। बतलाने में बाधक है। दोगह अगायाभूदं भावं समणापरूविति ॥ १२॥ . अब मैं इतना और बतखा देना चाहता हूँ कि स्वामी
ऐसी हालतमें शुद्धास्मा भी इस श्रमया-सिद्धान्तसे जीके प्रवचन लेखके प्रथम मैरेग्राफमें जो यह लिखा है किबहिर्भूत नहीं हो सकता, उसे जो अविशेष कहा गया है "शुद्ध मामा वा जिनशासन है; इसलिये जो जीव वह किस रष्टिको जिये हुए है इसे कुछ गहराई में उतर अपने गुमात्माको देखता है वह समस्त जिनशासनको कर जामने की जरूरत है । मात्र ग्रह कह देनेसे काम देखता है। यह बात श्री आचार्यदेव . समयसारकी नहीं चलेगा कि शुद्धनयकी दृष्टिसे वैसा कहा गया है पादरहवीं गाथामें कहते हैं:-"
यक बिना द्रव्य और तम्हा भए
णा
और शास्त्र तथा
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