________________
किरण 1
जिनशासन
[२११
वह सर्वांशमें ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त गाथामें है। किस दृष्टिसे या किन साधनोंसे देखता है, और आस्माश्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने ऐसा कहीं भी नहीं कहा कि जो शुद्ध के इन विशेषणोंका जिनशासनको पूर्ण रूपमें देखनेके साथ,
आत्मा वह जिनशासन हे' और न 'इसलिये' अर्थका क्या सम्बन्ध है और वह किस रीति-नीतसे कार्य में परिणत वाचक कोई शब्द ही गाथामें प्रयुक्त हुप्रा है। यह सब किया जाता है यह सब उसमें कुछ बतलाया महीं। इन्हीं स्वामीजीकी निजी कल्पना है। गाथामें जो कुछ कहा सब बातोंको स्पष्ट करके बतलानेकी जरूरत थी और गया है उसका फालतार्थ इतना ही है कि 'जो आत्माको इन्हींसे पहली शंकाका सम्बन्ध था, जिन्हें न तो स्पष्ट अबद्धस्पृष्टादि विशेषणोंके रूप में देखता है वह समस्त किया गया है और न शंकाका कोई दूसरा समाधान ही जिनशासनको भी देखता है। परन्तु कैसे देखता है ? प्रस्तुत किया गया है-दूसरी बहुत सी फालतू बातोंको शुद्धात्मा होकर देखता है या अशुद्धात्मा रह कर देखता प्रश्रय देकर प्रवचनको लम्बा किया गया। क्रमश:
जि....न....शा....स न जिनशासनको कब यथार्थ जाना कहा जाता है ?
[श्री कानजीस्वामी सोनगढ़ का वह प्रवचन लेख जो आत्मधर्मके गत आश्विन मास अङ्क ७ के शुरूमें प्रकाशित हुआ है, जिस पर 'अनेकान्त' की इसी किरण के शुरूमें विचार किया गया है।]
शुद्ध आत्मा वह जिनशासन है; इसलिये जो जीव जिनशासनसे बाहर है। जो जीव आत्माको कर्मके सम्बअपने शुद्ध आत्माको देखता है वह समस्त जिनशासन- न्धयुक्त ही देखता है उसके वीतरागभावरूप जैनधर्म को देखता है। यह बात श्री प्राचार्यदेव समयसारकी नहीं होता । अन्तरस्वभावकी दृष्टि करके जो अपने पन्द्रहवीं गाथामें कहते हैं :
प्रास्माको शुद्धरूप जानता है उसीके वीतरागभाव प्रकट यः पश्यति आस्मान, प्रबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम् । होता है और वही जैनधर्म । इसलिये प्राचार्यदेव कहते हैं अपदेशसान्तमध्यं, पश्यति जिनशासनं सर्वम् ॥१२॥ कि जो जीव अपने आत्माको कर्मके सम्बन्धरहित एकाकार
इस गाथामें प्राचार्यदेवने जैनदर्शनका मर्म खोलकर विज्ञानधर्म स्वभावरूप देखता है वह समस्त जैनशासनको रक्खा है। जो इन अवद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष देखता है ।
और असंयुक्त-ऐसे पाँच भावोंरूप प्रास्माकी अनुभूति देखो यह जैन शासन ! लोग बाह्यमें जैनशासन मान है वह निश्चयसे समस्त जिएशासनको अनुभूति है। मैठे हैं. परन्तु जैनशासन तो पास्माके शुद्धस्वभावमें जिसने ऐसे शुद्ध प्रात्माको जाना उसने समस्त जिनशासन है। कई लोगों को ऐसी भ्रमणा है कि जैनधर्म तो कर्मको जान लिया । समस्त जिनशासनका सार क्या ? प्रधान धर्म है। लेकिन यहाँ तो प्राचार्यदेव स्पष्ट कहते हैं -अपने शुद्ध प्रास्माका अनुभव करना। शुद्ध प्रात्माके कि आत्माको कर्मके सम्बन्धयुक्त देखना वह वास्तवमें अनुभवसे वीतरागता होती है और वही जैन धर्म है; जैनशासन नहीं है परन्तु कर्म के सम्बन्धसे रहित शुद्ध जिससे रागकी उत्पत्ति हो वह जनधर्म नहीं है। 'में देखना वह नशासन है। जैनशासन कर्मप्रधान तो बंधनवाला प्रशद्ध हूँ'-इस प्रकार जो पर्यायदृष्टिसे नहीं है. परन्तु कर्मके निमित्तसे जीवकी पर्यायमें जो अपने भास्माको अशुद्ध ही देखता है उसके रागकी पुण्यपापरूप विकार होता है उस विकारको प्रधानता भी उत्पत्ति होती है और राग है वह जैनशासन नहीं है। जैनशासनमें नहीं है। जैनधर्ममें तो ध्र व-ज्ञायक पवित्र इसलिये जो अपने पारमाको अशुद्धरूपही देखता है परन्तु प्रात्मस्वभावकी ही प्रधानता है; उसकी प्रधानतामें ही शुद्ध मामाको नहीं देखता उसे जिनशासनकी खबर नहीं वीतरागता होती है। विकारकी या परकी प्रधानतामें है। भाल्भाका कर्मके सम्बन्धयुक्त ही देखने वाला जीव नहीं होती इसलिये उसकी प्रधानता वह जैनधर्म नहीं है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org