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गाथा-७४
ऐसे भगवान आत्मा देह में रहा हुआ तत्त्व, उसकी वर्तमान प्रगट अवस्था अल्प है। पुण्य-पाप का विकल्प करते हैं, वह विकार है, दुःखरूप है। भगवान अन्तर उसका स्वभाव नित्यानन्दस्वरूप आत्मा, उसके स्वभाव में तो स्थायी आनन्द, अतीन्द्रिय आनन्द
और अतीन्द्रिय ज्ञान की पूर्णता से भरपूर वह भगवान आत्मा पूर्ण है। वह पूर्ण है, उसमें से प्राप्त की प्राप्ति होती है। है, कुएँ में होवे तो बर्तन में आये। न हो तो कहाँ से, धूल में से आयेगा? समझ में आया? ऐसे भगवान आत्मा... कहा न? यहाँ तक आया है देखो? वैसा ही आकार मेरे आत्मभगवान का है। पहला पैराग्राफ हुआ है। भावार्थ शुरु से लेते हैं।
देखो ! अपनी आत्मा अपने शरीर में व्यापक है। भगवान आत्मा शरीर प्रमाण परन्तु भिन्न तत्त्व है वे जड़ के आकार, वे तो जड़ हैं। प्रभु! उसमें जैसे पानी का कलश होता है, वह काशी घाट का (होता है) उस कलाश का आकार भिन्न है और अन्दर जल - पानी भरा है, उसका आकार भले ही कलशे जैसा उस पानी का आकार है; परन्तु वह पानी का आकार कलश से भिन्न आकार है। समझ में आया? ऐसे ही यह शरीर कलशघाट का शरीर है न? देखो न यह। यह (शरीर) काशी घाट का कलश है, उसमें भगवान आत्मा चिदानन्द विराजमान है। वह भी उसका आकार, उसकी आकृति भी शरीर प्रमाण भिन्न है। शरीर प्रमाण (होने) पर भी भिन्न है और उसके स्वभाव में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन (विद्यमान है)। जिसका स्वभाव जानना, उस जानने के स्वभाव की शक्ति की मर्यादा, माप कैसे होवे? वह स्वभाव बेहद ज्ञान, बेहद दर्शन, अमाप शान्ति, अमाप आनन्द, (शान्ति अर्थात् चारित्र) अमाप अतीन्द्रिय आनन्द का रसकण (अन्दर) आत्मद्रव्य में पड़ा है। समझ में आया?
___ ऐसे आत्मा को शरीर प्रमाण होने पर भी यह आत्मा स्वयं तीन लोक में मुख्य पदार्थ परमात्मादेव है। स्वयं ही परमात्मादेव है । परमात्मा हुए वे अपने स्वरूप से हुए। समझ में आया? वह भी स्वतन्त्र; जैसे लाखों करोड़ों गुनी पीपल होने पर भी, प्रत्येक पीपल में पूरी-पूरी ताकत है और पूरी-पूरी प्रगट होती है। वैसे ही अनेक आत्माएँ हैं तथापि एक-एक आत्मा में परिपूर्ण... बड़ में जैसे बीज या बीज में बड़ है, (वैसे ही) भगवान आत्मा परिपूर्ण शक्ति आनन्द आदि से भरपूर तत्त्व है। समझ में आया?