Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 418
________________ ४१८ गाथा - १०८ इसी शुद्ध आत्मा की भावना कर अपने आत्मा का हित किया है । अध्यात्मतत्त्व का विवेचन परम हितकारी है, आत्मिक भावना का हेतु है। लो ! यद्यपि ग्रन्थकर्ता ने अपने ही उपकार के लिए ग्रन्थ की रचना की है, तथापि शब्दों में भावों की स्थापना करने से व उनको लिपिबद्ध करने से पाठकों का भी परम उपकार किया है। समझ में आया? यह ग्रन्थ की बात की है, लो ! फिर अन्त में समयसार का कलश, तीसरा दिया है। आचार्य कहते हैं कि निश्चय से मैं शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति का धारक हूँ । अमृतचन्द्राचार्य ! परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नोऽनुभावादविरतमनुभाव्य व्याप्तिकल्माषितायाः । मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्ते, र्भवतु समयसारव्याख्ययैवानुभूतेः॥ ३॥ अब, यह टीका करने में मेरा लक्ष्य तो आत्मा की एकाग्रता का है। इस टीका के काल में मेरी शुद्धि बढ़ो - ऐसी जो भावना है, वह आत्मा की भावना है, ऐसा । अनादि काल से मेरी अनुभूति, विभावपरिणामों की उत्पत्ति के कारण मोहकर्म के उदय के प्रभाव से राग-द्वेष से निरन्तर मैली हो रही है । अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं कि पर्याय कर्म के निमित्त में लक्ष्य जाने से मेरी पर्याय उसके भाव से मलिन हो रही है। मैं इस समयसार ग्रन्थ का व्याख्यान करके यही याचना करता हूँ कि यही मेरी अनुभूति परम शुद्ध हो जावे,... लो ! ग्रन्थ पूर्ण करने का यह फल... देखो ! तब दूसरे क्या कहते हैं ? देखो ! यह शास्त्र - ग्रन्थ करते-करते जो विकल्प उठता है न, वह निर्जरा का कारण है । इस गाथा का ऐसा अर्थ करते हैं । परपरिणति... अरे... प्रभु ! यह शब्द तो निमित्त से कथन है । उस समय मेरा स्वभाव तरफ का ऐसा अभेद, ऐसा एकाकार ऐसा जो मेरा झुकाव है, वह इस विकल्प के काल में झुकाव इस ओर विशेष वर्तता है, उससे मेरी शुद्धि होओ, उसमें ऐसा कहा है कि यह टीका करते हुए मेरी शुद्धि होओ। ऐसे कथन कुछ और भाव कुछ... समझ में आया ? वीतरागी हो जावे, परम शान्तरस से व्याप्त हो जावे, समभाव में तन्मयता -

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