Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 417
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ४१७ सुख को नहीं पहचानता। मिथ्यात्व का पागलपन, जब पागलपन है, भ्रमणा है। शुभभाव में लाभ, पाप में मजा, संयोग अनुकूल हो तो सुविधा बहुत, प्रतिकूल हो तो हैरान-हैरान (हो गये) – ऐसा मिथ्यादृष्टि का भाव पागलपन है। जिससे प्राणी अपने आत्मिक अतीन्द्रिय सुख को नहीं पहचानते, इन्द्रियसुख में आसक्त होकर रहते हैं। वह तो इन्द्रिय के लोभी रहते हैं। समझ में आया? और विषय-भोग की इच्छा अथवा लोक के सुख की इच्छा है तो उसके निमित्त अनुकूल हों, उसका प्रेम उसे हटता नहीं है; प्रतिकूल हो उसका द्वेष हटता नहीं है। कोई अपने इन्द्रिय-विषय का प्रेमी को इन्द्रिय-विषय में विघ्न करनेवाला हो, उसके प्रति द्वेष हुए बिना नहीं रहे। मानता है न यह कि यहाँ से मुझे मिलता था। समझ में आया? और उसमें विघ्न करनेवाला होता है कि यह कहाँ से अभी आया? और उसके अनुकूल सामग्री साधनवाले पर उसे राग होता है। मिथ्यादृष्टि ज्ञेय के दो भाग करके – इष्ट-अनिष्ट के भाग करके, मिथ्यात्व के राग-द्वेष करता है। ज्ञेय के भाग हैं ही नहीं। ज्ञेय तो जाननेयोग्य सब चीज एकरूप ही है। उसके सब अनुकूल, उसके सब प्रतिकूल – यह वस्तु कहाँ है ? वस्तु में नहीं और क्षेत्र में नहीं। क्षेत्र में है – ऐसा स्वभाव? इष्ट होने का, अनिष्ट होने का – ऐसा वस्तु का स्वभाव है ? समझ में आया? ___ कहते हैं, जिसकी चाहना रहती है, वह रोग है । इच्छा की जलन होना वह एक प्रकार का रोग है। आहा...हा... ! विषय की अर्थात् बाहर की अनुकूलता में उल्लसित वीर्य स्फुरे, वह रोग है, रोग है। निरोग भगवान आत्मा, उसमें वह रोग है। उस रोग को जीतने का उपाय भगवान आत्मा की शरण है। आचार्यदेव प्रगट करते हैं कि मुझे संसार का भय है अर्थात् मैं राग-द्वेष-मोह के विकार से भयभीत हूँ। देखो, राग-द्वेष से भयभीत है, यह आकुलता... आकुलता दुःख है । मैं उसमें पड़ना नहीं चाहता। मैं राग -द्वेष में पड़ना नहीं चाहता। मैं राग-द्वेषरहित स्वभाव है, उसमें रहना चाहता हूँ। समझ में आया? अन्तिम श्लोक है न! आत्मिक आनन्द का ही स्वाद लेना चाहिए। निराकुल अतीन्द्रिय सुख को भोगना चाहिए। आत्मा का दर्शन करना चाहिए। इस ग्रन्थ के भीतर आचार्य ने

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