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गाथा-७५
(अपनी आत्मा को) परमात्मारूप देखना और अनुभव करना वही वीतरागभाव की प्राप्ति का उपाय है। निश्चय से अपने आत्मा को पूर्णस्वरूप से देखना, श्रद्धा करना और स्थिरता वही अनुभव करना, वही पूर्णानन्द की प्राप्ति का उपाय है। जितने प्रमाण में अन्तर में राग रहित श्रद्धाज्ञान और शान्ति प्रगट होती है उतने प्रमाण में धर्म है। इसके अतिरिक्त जितने रागादिक रहें, उतना अधर्म है। पूर्ण... पूर्ण प्रभु उसकी एकाग्रता होकर जितनी रागरहित दशा प्रगट होती है उतना धर्म; विकल्प बाकी रहे उतना धर्म से विरुद्धभाव है, समझ में आया?
वास्तव में जो कोई अरहन्त व सिद्ध परमात्मा को ठीक-ठीक पहचानता है... यह प्रवचनसार का दृष्टान्त देते हैं । वास्तव में कोई अरहन्त सिद्ध परमात्मा जो हुए उन्हें जो उनके द्रव्य-गुण को, द्रव्य अर्थात् वस्तु, गुण अर्थात् उसकी शक्ति अवस्था अर्थात् प्रगट दशा। वस्तु, वस्तु की शक्तियाँ अर्थात् गुण-स्वभाव और उसकी वर्तमान हालत प्रगट दशा; उस पूर्णानन्द परमात्मा को इन तीन से जो जानता है, ऐसा मैं आत्मा हूँ, ऐसा उसे जानने का प्रयत्न होता है, तब उसे सम्यक्-सत्यदर्शन, आत्मा प्रगट होता है। समझ में आया? यही कर्म खास करने योग्य माना है। देखा, अब कार्य लिया। यही स्वानुभव की कला है। यही स्वानुभव की कला है। आत्मा में एकाकार दृष्टि करना, शुद्धस्वरूप का अनुभव करना, यही कला, यही तन्त्र है, यही मन्त्र है और कोई मन्त्र-तन्त्र नहीं है। जिससे आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सके।
यहाँ एकान्त में कितने ही आते हैं, महाराज! ऐसा कोई मन्त्र दो कि जिससे मोक्ष होवे। ऐसा कोई मन्त्र-फन्त्र नहीं है, सुन ! महाराज कुछ जाप करते होंगे (इसलिए मैं भी करूँ)। जाप-वाप नहीं, इस भगवान को पहचानना वह जाप है; उसकी कीमत आने पर उसे राग-द्वेष और पैसा और पर के इन्द्रिय-विषय के सुख के भोग की कीमत उड़ जाती है। अतीन्द्रिय आनन्द के सुख की कीमत दृष्टि में आने पर इन्द्रिय के विषय के सुख और उसके कारण पुण्य और उसके फल बाह्य (संयोग), सबकी कीमत एकदम उड़ जाती है। समझ में आया?
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्दमूर्ति सच्चिदानन्द प्रभु, उसकी अन्तर में कीमत