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वीर संवत २४९२, आषाढ़ कृष्ण ७, गाथा ८० से ८२
शनिवार, दिनाङ्क ०९-०७-१९६६ प्रवचन नं. ३०
देखो! कहा है न इसमें ? 'पंचह संजुत्तु' यह... फिर अन्तिम है 'बे - पंचहं गुणसहिउ' नीचे है। भेददृष्टि से आत्मा का मरण करते हुए उसे दश लक्षण धर्मरूप विचार करना चाहिए। (दूसरे पैराग्राफ की पहली) लाइन है न ? 'बे-पंचहं गुणसहिउ' दश प्रकार के मुनि के धर्म है न ? समिति आदि, उन दश प्रकार के धर्म से विचार करना वह व्यवहारनय है, भेददृष्टि है। निश्चय से तो मैं मात्र ज्ञायकस्वभाव हूँ । उसका ध्यान करना, वही निश्चय है । व्यवहार से भेददृष्टि से आत्मा का मनन करते हुए, उसे दश लक्षण धर्मरूप विचारना चाहिए ।
यह आत्मा क्रोध विकार के अभाव से पृथ्वी के समान उत्तम क्षमा गुण का धारक है। कोई पृथ्वी खोदे, कोई टुकड़े करे तो पृथ्वी कुछ बोलती है ? उसकी उपमा दी है, हाँ! शास्त्र में आता है। पृथ्वी के समान उत्तम क्षमा गुण का धारक है। पृथ्वी को कोई खुदावे, काटे, तोड़े, छोड़े, टुकड़े करे तो पृथ्वी कहीं सामने क्रोध करती है ? गहरे गड्ढे (करे) विष्टा डाले, गड्डा करके अन्दर विष्टा डाले तो पृथ्वी कहती है कि ऐसा नहीं करो ? ऐसे ही क्रोध विकार के अभाव से क्षमा गुणधारी भगवान आत्मा ऐसी क्षमा रखता है। क्षमा करता है । ज्ञाता-दृष्टा रहकर क्षमा ( करता है), हाँ !
मान के अभाव से उत्तम मार्दव गुण का धारक है। आत्मा मार्दव - कोमल गुणका पिण्ड ही आत्मा है। मार्दव-निर्मानस्वरूप है - ऐसी दृष्टि करके निर्मानता
प्रगट करना ।
माया के अभाव से उत्तम आर्जव गुण का धारक है। सरल, सरल। यह किसलिये लेना है ? त्याग में ले जाना है इसलिए। यह त्याग, त्याग करते हैं न अभी ? दशवें