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गाथा-१००
और व्यवहार । पर्यायरहित द्रव्य नहीं होता। निश्चय, व्यवहार बिना का नहीं होता। द्रव्य कार्य बिना का नहीं होता। कार्य को अपना द्रव्य कारण नहीं है - ऐसा द्रव्य उसे नहीं होता, ऐसा नहीं होता। आहा...हा...! अद्भुत बात भाई!
ऐसी समता होने पर अपने में राग-द्वेष भाव नहीं करता.... अर्थात् ? राग-द्वेष के विकल्प जरा हों, परन्तु मैं आत्मा ज्ञाता-ज्ञानस्वरूपी शुद्धस्वभाव हूँ – ऐसा जानता हुआ उस राग को अपने ज्ञानस्वभाव में मिलाता, शामिल करता, खतौनी करता नहीं है। समझ में आया? आहा...हा... ! ऐसा समभाव है। कोई लकड़ी मारे तो समभाव (रखना) – ऐसा समभाव नहीं। लो! किसी ने लकड़ी मारी और क्षमा रखी, वह क्षमा नहीं।
मुमुक्षु – एक थप्पड़ मारे तो दूसरी मारने दे न !
उत्तर – मारे कहाँ? यह तो सब ख्रिस्ती की बातें हैं । ईशु ख्रिस्ती कहते हैं न! एक ऐसा मारे तो ऐसा मार, वह समभाव... यह समभाव की व्याख्या ही नहीं है।
समभाव की व्याख्या - आत्मा ज्ञानानन्दस्वभाव और पुण्य-पाप के विकल्प एक प्रकार के उत्पन्न हों, वह सब एक ही प्रकार का बन्धभाव है, दोनों विषमभाव है; स्वभाव समभाव है – ऐसा जहाँ विवेक होता है, वहाँ समभाव होता है। उसे समभाव कहते हैं। ऐसा दूसरे कहें एक ओर तू यहाँ मारो, दूसरी ओर यहाँ मारो... ईशु ख्रिस्ती... उसे पता ही नहीं है। मारे किसे और सहन करना किसने? समझ में आया? ज्ञान भगवान आत्मा अपने समस्वभावी चैतन्यरस को ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जानता है। उसमें पुण्य-पाप की कमजोरी के कारण होनेवाले राग को स्वभाव में नहीं मिलाता । बस, इस अपेक्षा से वह राग-द्वेष को नहीं करता। समझ में आया? यह सामायिक की बात हुई।
अब, छेदोपस्थापना की (गाथा है)।
छेदोपस्थापना चारित्र हिंसादिउ-परिहारू करि जो अप्पा हु ठवेइ। सो वियऊ चारित्तु मुणि जो पंचम-गइ णेइ॥१०१॥