Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

View full book text
Previous | Next

Page 408
________________ ४०८ गाथा-१०७ अनुभव रत्न चिन्तामणि, अनुभव है रसकूप; अनुभव मारग मोक्ष का, अनुभव मोक्षस्वरूप। पर्याय मोक्षस्वरूप कहो। वस्तु मोक्षस्वरूप, त्रिकाल मोक्षस्वरूपी है, मुक्त ही है। परम स्वभावभाव परिणामी मुक्तस्वरूप है। उसे बन्ध कैसा और उसे आवरण कैसा? ऐसे मुक्तस्वभाव की शरण लेकर जो अन्तर अनुभवदशा प्रगट होती है, वह अनुभव – मार्ग पर्याय है। वह पर्याय, मोक्ष का मार्ग है। समझ में आया? अपना ही आत्मा साध्य है, अपना ही आत्मा साधक है। उपादानकारण ही कार्यरूप हो जाता है। शुद्ध उपादानस्वभाव स्वयं ही परिणमित होकर पूर्णानन्द की प्राप्तिरूपी कार्य को पा जाता है। भले बीच में संहनन या कुछ भी हो। समझ में आया? वज्रनाराचसंहनन और मनुष्यपना, वह कहीं केवलज्ञान प्राप्त करने के काम में नहीं आता। स्वयं ही शुद्ध भगवान आत्मा पूर्ण शुद्धस्वभाव, वह अन्तर में एकाकार होकर परिणमता-परिणमता पूर्ण कार्यरूप परिणमित हो जाता है। उपादानकारण, कार्यरूप परिणम जाता है। समझ में आया? सोने का दृष्टान्त दिया है। स्वर्ण स्वयं ही धीरे-धीरे शुद्ध होता है। स्वयं ही.. पंचास्तिकाय में दृष्टान्त है न! भाई! अग्नि का निमित्त कहा है, बाद में कहा। स्वर्ण स्वयं ही अपने कारण से, उपादान से शुद्ध होता, होता सोलहवान हो जाता है; दूसरा तो निमित्त से कहा। पदार्थ स्वर्ण-सोना स्वयं भी अपनी शुद्धता से परिणमता... परिणमता... परिणमता... परिणमता.... परिणमता सोलहवान हो जाता है। सोलहवान कहते हैं ? सोलहवान। अग्नि तो निमित्त है। समझ में आया? सोना स्वयं से ही कुन्दन (शुद्ध स्वर्ण) हो जाता है। इस दशा को आत्मा का दर्शन अथवा आत्मा का साक्षात्कार कहते हैं। लो! भगवान आत्मा ज्ञान में ज्ञेयरूप भी अभेद आया, श्रद्धा में भी द्रव्य अर्थात् अभेद आया। उसमें स्थिर होना वह अनुभव हुआ, पर्याय। अनुभव, द्रव्य-गुण का नहीं हो सकता, अनुभव, पर्याय का होता है क्योंकि ज्ञान सबका होता है। तीन काल-तीन लोक का (होता है) परन्तु अनुभव तो एक समय की पर्याय का (उसका) ही वेदन होता

Loading...

Page Navigation
1 ... 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420