Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 403
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ४०३ संकोच-विस्तार से लक्षित है और जो चरमशरीर के परिमाण से किंचित् न्यून परिणाम से अवस्थित होता है - ऐसा लोकाकाश के माप जितना मापवाला आत्म अवयवपना.... अवयवपना, संस्कृत टीका में है, हाँ! अवयवपना जिसका लक्षण है - ऐसी नियतप्रदेशत्व शक्ति (आत्मा के लोकपरिमाण असंख्य प्रदेश नियत ही है।वे प्रदेश संसार अवस्था में संकोच-विस्तार पाते हैं और मोक्ष अवस्था में चरम शरीर से किंचित न्यून परिमाण से स्थित रहते हैं)। (२४) । 'नियत' शब्द प्रयोग किया है, हाँ! नियतप्रदेशत्व शक्ति एक है। आत्मा में नियतप्रदेशत्व नाम का एक गुण है कि जो नियत असंख्य प्रदेशी निश्चय से है परन्तु असंख्य प्रदेश ऐसे हैं – ऐसा भेद करने जाये वहाँ विकल्प उठते हैं, इसलिए उसे गौण कर देना । वस्तु चली नहीं गयी, वस्तु तो असंख्य प्रदेशी ही है। यहाँ 'नियतप्रदेश' (शब्द) प्रयोग किया है। नियतप्रदेशत्व शक्ति - ऐसा शब्द प्रयोग किया है। सैंतालीस शक्ति में है। कहो, इसमें समझ में आया? जैन को दूसरे अन्य के साथ मिलाने को कितने ही गड़बड़ करते हैं। यह तो असंख्य प्रदेश कहे हैं, वह व्यवहार से कहे हैं। समझे न? ऐसा नहीं है। असंख्य प्रदेश निश्चय से है परन्तु उनका – असंख्य प्रदेशों का लक्ष्य करने जाये, वहाँ व्यवहार-विकल्प उठता है, इस अपेक्षा से असंख्य का लक्ष्य नहीं करना, एक का करना। इससे एक का लक्ष्य करने से असंख्य नहीं हैं, व्यवहार से कहे थे इसलिए, अभूतार्थ नय से कहे थे - ऐसा नहीं है। अद्भुत बात, भाई! समझ में आया? सूक्ष्म बहुत इसमें, छोटूभाई! बहुत सूक्ष्म, भाई! यह दया पालना, ई..... वीया मिच्छामिदुक्कडम करना, वह यह बात नहीं है। आहा...हा...! ___ असंख्य प्रदेश में अनन्त गुण व्यापक हैं – ऐसे एक-एक प्रदेश में अनन्त... अनन्त... अनन्त... ऐसे बिछे हुए हैं। तिरछे... तिरछे... तिर्यक प्रचय ऐसे असंख्य प्रदेश। और ९९ वें में लिया है न? भाई! ९९ वें गाथा, प्रवचनसार... बताना है तो उस पर्याय को, परन्तु वहाँ दृष्टान्त दिया है – एक प्रदेश में दूसरे प्रदेश का अभाव है। एक दूसरे प्रदेश में तीसरे प्रदेश का अभाव है। व्यतिरेक । इस प्रकार असंख्य प्रदेश हैं। ९९ वीं गाथा, ज्ञेय अधिकार। आत्मा का ज्ञेयपना कितना है – ऐसा सिद्ध करना है। समझ में आया? परन्तु

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