Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 404
________________ गाथा - १०६ ऐसे असंख्य यह संख्या जहाँ लक्ष्य में लेने जाये, उसमें विकल्प उठते हैं । आहा... हा...! भीखू भाई ! यह सूक्ष्म बात है। इस दुकान में पूरे दिन धन्धा ... धन्धा... धन्धा उसमें कठिनता से किसी दिन सुने उसमें - ऐसा आवे, उसमें ऐसा सूक्ष्म आवे । कहते हैं, हम मुश्किल से आये वहाँ से दुकान छोड़कर.... परन्तु समझने का यह है। कुछ समझ में आया ? ४०४ (यहाँ पर) समाधिशतक में (कहते हैं) भगवान ! ज्ञानी इस जगत का निश्चय से एक समान शब्दरहित वह निश्चय ज्ञाता है। लिंग - विंग नहीं । यह स्त्रीलिंग, पुरुषलिंग और नपुंसक, भावभेद और भावभेद में अन्तर यह भी नहीं । वह तो पर्याय है, वस्तुरूप से एकाकार भगवान आत्मा ज्ञाता-दृष्टा परमस्वभावस्वरूप एक है - ऐसी दृष्टि करने से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र प्रगट होता है। समझ में आया ? भेद को लक्ष्य में रखना, भूल न जाना। भूल अर्थात् वह नहीं है - ऐसा नहीं है परन्तु व्यवहार का अभाव करके निश्चय करना - ऐसा नहीं । व्यवहार को गौण करके निश्चय करना – ऐसी वस्तु है । अभाव करे तो वह वस्तु नहीं - ऐसा हुआ । आहा... हा...! वीतराग शासन ऐसा है । भाई ! १०६ (गाथा पूरी हुई। लो ! ✰✰✰ आत्मा का दर्शन ही सिद्ध होने का उपाय है जे सिद्धा जे सिज्झिहिहिं जे सिहि जिण- उत्तु । अप्पा - दंसण ते वि फुडु एहउ जाणि णिभंतु ॥ १०७ ॥ सिद्ध हुये अरु होंगे, हैं अब भी भगवन्त । आतम दर्शन से हि यह, जानो होय निःशङ्क॥ अन्वयार्थ – ( जिण उत्तु ) श्री जिनेन्द्र ने कहा है (जे सिद्धा) जो सिद्ध हो चुके हैं ( जे सिज्झिहिहिं ) जो सिद्ध होंगे (जे सिज्झहि ) जो सिद्ध हो रहे हैं (ते वि फुडु अप्पा दंसण) वे सब प्रगटपने आत्मा के दर्शन से हैं (एहउ णिभंतु जाणि ) इस बात को सन्देह रहित जानो । ✰✰✰

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