Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 370
________________ ३७० गाथा-१०२ उत्तर - मिलते हैं, भाई! पूरी दुनिया पड़ी है। चींटियों को नगर बहुत होते हैं । यह चींटियाँ नहीं निकलतीं? इनके क्या कहलाते हैं यह? शाम को आटा डालते हैं न? उसकी भाषा क्या है ? बिल... बिल... है न? कुछ नाम होगा। शाम को चींटियाँ बहुत निकले, फिर यह आटा डाले। आटा! हमारे नगरा कहते हैं, नगरा अर्थात् उनका नगर, उनका घर। शाम को बहुत होती हैं । शाम को बहुत निकलती हैं, लाखों निकलती हैं; इसलिए कोई मनुष्य हो गया चींटीं? यहाँ पहले बहुत निकलती थी। यह तो भगवान आत्मा इतना है कि जिसके एक गुण की, एक समय की एक पर्याय, जो छह द्रव्य को जाने – ऐसा तो एक पर्याय का स्वरूप सामर्थ्य है, ऐसा आत्मा। ऐसे आत्मा... आत्मा... करे यह नहीं चलता। समझ में आया? ऐसी अनन्त पर्यायें जिसके गुण में – ज्ञानगुण में पड़ी हैं। एक समय की पर्याय छह द्रव्य को जाने – ऐसी अनन्त पर्यायेंगण में पडी हैं - ऐसी अनन्त पर्यायों का एक गण. उसे श्रद्धा करने का श्रद्धागण. उसकी एक समय की पर्याय इतने को श्रद्धती है, अभी भले पर तरफ में हो परन्तु उस श्रद्धा की पर्याय की इतनी ताकत है कि समस्त गुणों की पर्याय की ऐसी ताकत है – ऐसी पर्याय श्रद्धा करती है, ऐसी अनन्त पर्याय उसके श्रद्धा-गुण में पड़ी है। समझ में आया? ऐसा एक चारित्रगुण इतना, ऐसा एक आनन्दगुण, ऐसा एक स्वच्छतागुण, ऐसा एक प्रभुतागुण, ऐसा एक कर्तागुण, ऐसा एक कर्मगुण, ऐसा एक कर्णगुण, इसमें है। समझ में आया? भाई! आत्मा तो बड़ा भगवान है, भाई! यह कहते हैं कि ऐसा आत्मा जिसे भासित हुआ, यह उसे छह द्रव्य के मूलगुण, मूल अर्थात् सामान्य और पर्याय का स्वरूप केवलज्ञानी के समान यथार्थ शंकारहित जानता है। शंका कैसी? शंका का तो नाश हो गया। वहाँ नि:शंकदशा आत्मा की हो गयी। भगवान ही ऐसा बड़ा है। ओ...हो... ! यह सब काम देखो न, जगत में अनेक हो रहे हैं, होते हैं, बिगड़ते हैं – ऐसी लोगों की भाषा में, व्यय होता है, उत्पाद होता है, यह सब पर्याय धर्म है। उसमें ज्ञानी को कोई किसी का कर्ता भासित नहीं होता और उसमें उसकी अद्भुतता और विस्मयता नहीं लगती। समझ में आया? आहा...हा...! साधारण प्राणी को तो ऐसा लगता है कि यह क्या? समझ में आया?

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