Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 397
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) ३९७ अन्वयार्थ – (एक ही लक्खण- लक्खियउ जो परू णिक्कलु देउ ) इस प्रकार ऊपर कहे हुए लक्षणों से लक्षित जो परमात्मा निरंजनदेव है ( देहहँ मज्झहिं सो वसइ ) तथा जो अपने शरीर के भीतर बसनेवाला आत्मा है ( तासु भेउ ण विज्जइ ) उन दोनों में कोई भेद नहीं है । ✰✰✰ परमात्मदेव अपने देह में भी है । आहा... हा...! इस गाथा में जरा फर्क है । शीतलप्रसादजी की गाथा में एक हि लक्खण - लक्खियउ ऐसा नहीं चाहिए। एव हि लक्खण- लक्खियउ चाहिए। 'एक' शब्द पड़ा है न? यह 'एक' नहीं चाहिए । एव हि लक्खण यह सब कहे न ? आत्मा के लक्षण सब कहे न ? ऐसा चाहिए । उसमें ऐसा होगा, देखो! 'एव' है न ? वह ठीक है क्योंकि जो इस प्रकार पंच परमेष्ठी रूप हैं, ब्रह्मा विष्णु आदि जिसके नाम हैं, उस रूप से आत्मा का जो स्वरूप है, उस प्रकार एव हि लक्खण लक्खियउ ऐसा । इस लक्षण से लक्षित (होवे ), उसे आत्मा कहा जाता है। समझ में आया ? अद्भुत बात, भाई ! तब दूसरे कहते हैं। महाराज ! आप तो बहुत समेट समेट कर तुम्हारे आत्मा की बात लाते हो । सबके देव भी तुम्हारे में समाहित कर देते हो । दूसरे के देव भी तुम आत्मा में समाहित कर देते हो... परन्तु यह आत्मा ऐसा है, उसमें समाहित कहाँ करना ? ऐसा ही है । समझ में आया? परमात्मदेव अपने देह में भी है । एव हि लक्खण- लक्खियउ ऐसा चाहिए। - एव हि लक्खण-लक्खियउ जो परू णिक्कलु देउ । देहहँ मज्झहिं सो वसइ तासु विज्जइ भेउ ॥ १०६ ॥ इस प्रकार ऊपर कहे गये लक्षणों से लक्षित... लो ! यह पाँच आचार्य न सब कहा न ? परमेष्ठी और... इस प्रकार... फिर अर्थ में ठीक किया है । लक्षणों से लक्षित जो परमात्मा निरंजन देव है... ऊपर जो सब नाम दिये पंच परमेष्ठी के (वे और) शिव, शंकर, विष्णु, रुद्र, बौद्ध, जिन, ईश्वर, और ब्रह्मा ये सब लक्षण जो कहे, वे भगवान

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