Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 396
________________ ३९६ गाथा-१०५ लहरें इसी प्रकार भगवान आत्मा द्रव्य-गुण जब शुद्धस्वभाव में अनन्त गुण का रसकन्दरूप है तो उसकी दशा होने पर पर्याय भी अनन्त शुद्ध गुण के परिणमन के उसकी तरंगें हैं। समझ में आया? उन अनन्त गुणों की पर्याय इतनी अनन्त उत्पन्न होती है, जैसे गुण-द्रव्य हैं, वैसी ही पर्याय निर्मल शुद्ध हो, तब उसे बुद्ध ईश्वर, ब्रह्मा, जिन कहा जाता है, कहो समझ में आया? शुद्ध ही होता है। लो, फिर दृष्टान्त दिया है। ठीक। समाधि शतक में कहा है – परमात्मा कर्ममल रहित निर्मल है, एक अकेले हैं इससे केवल हैं, वही सिद्ध हैं, वही सर्व अन्य द्रव्यों की व अन्य आत्माओं की सत्ता से निराला विविक्त हैं। वही अनन्त वीर्यवान होने से प्रभु हैं, वही सदा अविनाशी हैं, परम परमपद में रहने से परमेष्ठी हैं। यह सब नाम दिये हैं। समाधिशतक में, हाँ! निर्मल: केवल: सिद्धो विविक्तः प्रभुरक्षयः। परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः॥६॥ भक्तामर में कितने ही नाम दिये हैं। कहो, समझ में आया? वही उत्कृष्ट होने से परमात्मा हैं, वही परमात्मा हैं, वही सर्व इन्द्रादि से पूज्य ईश्वर हैं, वही रागादि विजयी जिन भगवान है। लो! यह आत्मा एक समय में प्रभु द्रव्य से देखो तो निश्चय है, पर्याय से देखो तो व्यवहार है। तो जहाँ परिपूर्ण पर्याय हो गयी, उसे देखो तो प्रमाण ज्ञान में पूर्ण द्रव्य गुण और पूर्ण पर्याय प्रमाण है पूरा । समझ में आया? निश्चय में द्रव्य-गुण पूर्ण है और पर्याय पूर्ण नहीं, उसका ज्ञान करने से उस प्रकार का प्रमाण होता है, परन्तु पूर्ण प्रमाण तो पूर्ण पर्याय प्रगट हो, तब प्रमाण होता है। अब, १०६। ___ परमात्मदेव अपने देह में भी है एव हि लक्खण-लक्खियउ जो परू णिक्कलु देउ। देहहँ मज्झहिं सो वसइ तासु विज्जइ भेउ॥१०६॥ इन लक्षण से युक्त जो, परम विदेही देव। देहवासी इस जीव में, अरु उसमें नहिं भेद॥

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