Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 380
________________ आत्मा ही पञ्च परमेष्ठी है अरहंतु वि सो सिद्ध सो आयरिउ वियाणि। सो उवझायउ सो जि मुणि णिच्छइँ अप्पा जाणि॥१०४॥ आत्मा ही अरहन्त है, निश्चय से सिद्ध जान। आचारज उवझाय अरु, निश्चय साधु समान॥ अन्वयार्थ - (णिच्छइँ) निश्चय से (अरहंतु वि अप्पा जाणि) आत्मा ही अरहन्त है ऐसा जानो ( सो फुडु सिद्ध) वही आत्मा प्रगटपने सिद्ध है ( सो आयरिउ वियाणि ) उसी को आचार्य जानो ( सो उवझायउ ) वही उपाध्याय है ( सो जि मुणि) वही आत्मा ही साधु है। वीर संवत २४९२, श्रावण शुक्ल ९, गाथा १०४ से १०६ मंगलवार, दिनाङ्क २६-०७-१९६६ प्रवचन नं.४४ यह योगसार शास्त्र है, इसकी १०४ वीं गाथा। आत्मा ही पञ्च परमेष्ठी है।लो! यह आत्मा ही पंच परमेष्ठी के स्वरूप ही है, यह बात कहते हैं। यह कुन्दकुन्दाचार्यदेव की मोक्षपाहुड़ की १०४ गाथा में भी यही है। अरहंतु वि सो सिद्ध सो आयरिउ वियाणि। सो उवझायउ सो जि मुणि णिच्छइँ अप्पा जाणि॥१०४॥ निश्चयनय से.... अर्थात् यथार्थ दृष्टि से देखो तो आत्मा ही अरहन्त है - ऐसा जानो। आत्मा स्वयं अरहन्त है। अरहन्त की पर्याय – केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि जो प्रगट है, वे सभी पर्यायें आत्मा के अन्तर में ध्रुवपद में पड़ी है। वे सभी शक्तिरूप से पड़ी

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