Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 384
________________ ३८४ गाथा-१०४ है, इन परमेष्ठी की पर्याय में वह राग नहीं मिलता। समझ में आया? आचार्य – णमो लोए सव्व आयरियाणं - सबमें लोए' लेना, हाँ! इसलिए अन्त में लिखा है - णमो लोए सव्व साहूणं – अन्त दीपक है; इसलिए अन्त में बताया है, वरना णमो लोए सव्व अरिहंताणं, णमो लोए सव्व सिद्धाणं, णमो लोए सव्व आयरियाणं, इन आचार्यों को नमस्कार हो परन्तु इन आचार्य का पद, वीतरागी पर्याय में परिणमित पद है - ऐसी समस्त पर्यायें तेरे अन्तर में है। समझ में आया? ऐसे आचार्यों को इस प्रकार वीतरागी पर्याय द्वारा आचार्य को पहचानकर और उसका अन्तर में तल्लीन हो जाना, वह स्वयं ही आचार्य हो जाता है। उपाध्याय भी दूसरे को पढ़ाते हैं। पढ़ाते हैं - ऐसा विकल्प है, वह प्रमाद है। समझ में आया? उपाध्यायपना है, वह तो वीतरागी पर्याय है। भगवान द्रव्य वीतरागी, गुण वीतरागी, और प्रगट पर्याय जितनी वीतरागी प्रगट हुई है, तीन (कषाय के अभावपूर्वक) गुणस्थान प्रमाण में, उस वीतरागी पर्यायवाला द्रव्य, वह उपाध्याय है। आहा...हा...! समझ में आया? ऐसे उपाध्याय का ध्यान करना। साधु – उन्हें अट्ठाईस मूलगुण होते हैं परन्तु वह तो प्रमाद में जाते हैं । (क्योंकि) विकल्प है। उनकी जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र की वीतरागी परिणति जो है, उसे साधु कहते हैं। वे साधु, स्वभाव को साधते हैं। पूर्ण स्वभाव को वे साधते हैं, अन्य राग कुछ नहीं साधता। समझ में आया? ऐसे परमात्मस्वरूप में पाँचों परमेष्ठी पद अन्दर पडे हैं। आहा...हा... ! पड़े हैं, वे प्रगट होते हैं। ऐसा अन्तर में भरोसा करके उसका ध्यान कर – ऐसा कहते हैं। समझ में आया? ध्यान फिर चारित्र की पर्याय है। रुचि प्रगट होने के बाद स्थिरता प्रगटे न? भगवान आत्मा ऐसा है, है ऐसी शक्ति... रात्रि में तो बहुत आया था। अब वह कोई फिर से आयेगा? रात्रि में तो बहुत आया था। तुम कल थे? नहीं थे? ओ...हो...! कल तो आया, भाई! आवे तब आ जाये न यह तो! कहो, समझ में आया? मुमुक्षु - वह किसका ध्यान करते हैं? उत्तर – आनन्द का ध्यान करते हैं। केवली किसका ध्यान करते हैं ? पण्डितजी! प्रवचनसार में आया न? मोह नहीं, पदार्थ का ज्ञान पूरा है, तो किसका ध्यान करते हैं ?

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