Book Title: Yogsara Pravachan Part 02
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 373
________________ योगसार प्रवचन (भाग-२) भरमाया'। दुनिया को छाछ मिली है । यह पुण्य - पाप की क्रिया और यह... मक्खन तो ज्ञानी खा गये अन्दर से । आहा... हा... ! इसमें कहीं है, हाँ ! लो, यही आया। एक ही लाईन है। सेठिया ने बनाया है 'आत्म गगन में ज्ञान ही गंगा, जामे अमृत वासा, आत्म गगन में ज्ञान ही गंगा, ज्ञान ही गंगा, जा अमृतवासा; सम्यग्दृष्टि भर-भर पीवै सन्तों, मिथ्यादृष्टि जाय प्यासा, अबधु, सो जोगी रे गुरु मेरा, इनपद का करे रे निवैरा' । आनन्दघनजी का बड़ा लम्बा है। सब एक-एक देखा है । पहले (संवत) १९७८ की साल पहले, हाँ ! एक-एक आनन्दघनजी के पद-वद सब खूब देखे हैं । ३७३ यह अन्तर आत्मा की बात, यह अलौकिक बात है। भगवान समरसी प्रभु ! आहा...हा... ! ऐसे समरस में, ज्ञान में ऐसा विषय बदल जाये कि यह ठीक, अठीक, कहते हैं कि यह राग-द्वेष है। वह स्वरूप में पोषाते नहीं हो सकते हैं। उनका जिसे त्याग है, वह वास्तव में परिहारविशुद्धिचारित्र है । अध्यात्म से लिया है न ? तत्त्वार्थसार में लिया है, अन्तिम उद्धरण दिया है। जहाँ प्राणियों के घात का विशेष रूप से त्याग हो और चारित्र की शुद्धि हो, वह परिहारविशुद्धिचारित्र है । यह तत्त्वार्थसार में (आता है) । अमृतचन्द्राचार्य का तत्त्वार्थसार है न ? अपने व्याख्यान में तत्त्वार्थसार पढ़ा गया है । कहो, समझ में आया इसमें ? यह अत्यन्त संक्षिप्त करके (कहा) अब सब पूरा होने आया है । अब, यथाख्यात, १०३ (गाथा) । I ✰✰✰ यथाख्यात चारित्र सुहुमहँ लोहहँ जो विलउ सो सुहुमु वि परिणाम | सोहुमु विचारित मुणि सो सासय- सुह-धामु ॥ १०३॥ सूक्ष्म लोभ के नाश से, सूक्ष्म जो परिणाम । जानों सूक्ष्म चारित्र वह, जो शाश्वत सुख धाम ॥

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