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गाथा - ९१
भगवान आत्मा अजर अर्थात् उसमें जीर्णता नहीं और उसमें मरण अर्थात् अभाव नहीं। वह गुण का पिण्ड प्रभु, महासत्ता चैतन्य सत्स्वरूप अनादि - अनन्त, अजन्म और अमरण... उसे जन्म भी नहीं और मरण भी नहीं - ऐसा शाश्वत् तत्त्व है। ऐसा गुणों का निधान आत्मा स्थिर हो जाता है । जब ऐसे आत्मा में स्थिर ( हो जाता है), अनादि से पुण्य-पाप के विकल्प और राग में स्थिर होने से बन्धन है। राग-द्वेष, पुण्य-पाप के भाव में स्थिर होने से बन्धन है और आत्मा, राग-द्वेष विकल्परहित आत्मा है, उसमें स्थिर होने से, पहले श्रद्धा में पूर्णानन्द की प्रतीति अनुभव में करके, फिर स्थिर होने से संवर- निर्जरा होते हैं । संवर - निर्जरा की क्रिया-कर्म का रुकना और कर्म का खिरना, उसकी क्रिया अपने शुद्ध स्वरूप में स्थिर होना, वह एक ही क्रिया है । कहो, समझ में आया ? स्थिर हो जाना ।
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वहाँ वह आत्मा नवीन कर्मों से नहीं बँधता है.... क्योंकि अपना स्वरूप सम्यग्दर्शन में शुद्ध चैतन्य की दृष्टि की तो शुद्ध चैतन्य की स्थिर होने से नवीन कर्म बिल्कुल नहीं बँधते हैं और पूर्व के संचित कर्मों का क्षय करता है । अर्थात् पुराने कर्म क्षय हो जाते हैं। कर्ता है - ऐसा कहा जाता है । पुव्व संचिय विलाइ । पूर्व के संचय का नाश हो जाता है। पूर्व के संचय का नाश हो जाता है । उत्पाद-व्यय- ध्रुव तीनों ले लिये। क्या कहा ?
भगवान आत्मा ध्रुव अजर-अमर है, उसमें स्थिर होना वह, उत्पाद - पर्याय निर्मल और पूर्व की अशुद्ध अवस्था है, उसका नाश होता है। यहाँ कर्म की अपेक्षा ली है, अशुद्ध अवस्था का व्यय होता है, शुद्ध अवस्था की उत्पत्ति होती है, और जिसमें स्थिर है वह तो ध्रुव कायम है। समझ में आया ? यह धार्मिक क्रिया ! जैनधर्म की यह क्रिया । ध्रुव स्वभाव चैतन्यबिम्ब, महासत्ता में रुचि, परिणति करके स्थिर होना ही संवर, निर्जरा की जैनमार्ग की धार्मिक क्रिया है। मंगलदासभाई ! है ?
मुमुक्षु : एक में आ गया है, शास्त्र में तो सब ।
उत्तर :
देखो न ! शास्त्र का सब कथन इसके लिए है। शास्त्र में लाख बात हो, बात तो समझने के लिए सब की है या नहीं.... वस्तु यह ।