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गाथा-९१
अपने दो, तीन दिन पहले यह अधिकार आ गया है। आत्मा में आनन्दगुण है, आनन्द... आनन्द.... विशेष गुण है, हाँ ! दूसरों में नहीं, है । प्रश्न तो किया था, लड़कों ने पूछा था, आदमी को पूछा था, आत्मा में आनन्दगुण है, उस आनन्दगुण की व्याख्या क्या? गण की व्याख्या तो यह है कि गण, द्रव्य के सम्पर्ण भाग में और सम्पर्ण अवस्थाओं में रहता है। द्रव्य उसे कहते हैं कि गुण के समूह को द्रव्य कहते हैं। गुण उसे कहते हैं कि द्रव्य के सर्व भाग में अर्थात् क्षेत्र और सर्व अवस्थाओं में अर्थात् दशा । आया था या नहीं? हेमन्त ! कब? उस दिन दूसरे लड़के भी नहीं होते। समझ में आया?
अपना आत्मा विशेष गुण-आनन्द, विशेष गुण-चारित्र तो गुण की व्याख्या क्या? गुण तो अपने द्रव्य में सर्व भाग में, सर्व भाग का अर्थ सर्व क्षेत्र में... द्रव्य तो है, तो सर्व क्षेत्र आया। वह गुण सर्व क्षेत्र में है, गुण तो भाव है और सर्व अवस्थाओं में यह पर्याय हुई। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव चारों आ गये। यह आनन्दगुण है, वह अपनी पर्याय में प्रत्येक अवस्था में आनन्द है परन्त जब तक उसे पुण्य-पाप की रुचि की श्रद्धा है, तब तक आनन्दगुण की अवस्था तो है, वह आनन्दगुण की अवस्था दु:खरूप है। चन्दुभाई ! क्या कहा, समझ में आया?
आत्मा में आनन्दगुण तो है। त्रिकाल अतीन्द्रिय आनन्द का रस पिण्ड आत्मा है। उस अतीन्द्रिय आनन्दगुण की व्याख्या क्या? गुण सर्व अवस्थाओं में रहता है, गुण सर्व अवस्थाओं में रहे और सर्व क्षेत्र में रहे। सर्व अवस्थाओं में रहे उसका अर्थ क्या हुआ? आनन्दगुण किसी भी पर्याय की हालत में न हो – ऐसा नहीं (होता)। तब (कोई) कहे, संसारी अज्ञानी प्राणी को अभी तो आनन्द नहीं है, तो कहते हैं – राग की एकताबुद्धि करता है तो उस आनन्द की अवस्था वहाँ दु:खरूप है । है, आनन्द की अवस्था। समझ में आया? शशिभाई!
किसी गुण की अवस्था न हो, हालत न हो - ऐसा तीन काल में नहीं होता है। भगवान आत्मा आनन्दगुण सम्पन्न प्रभु की हालत मिथ्या राग-द्वेष की रुचि में है तो आनन्दगुण की हालत, हालत तो है (परन्तु) दुःखरूप है। (यह कहते है) आनन्दगुण कहना और फिर हालत दुःखरूप कहना...! आनन्दगुण की अवस्था आनन्दरूप है ? वह