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गाथा-९३
चले नहीं, एकदम घुटी हुई उड़द की दाल न हो तो हिचकियाँ उठे। हिचकियाँ उछल जाये, उड़द की दाल होती है न? उड़द की। छाछ.... छाछ समझते हो? मट्ठा, मट्ठा डालते हैं न? फिर दाल ऐसी एकरूप घुटी हुई न हो (तो कहे) धन की धूल कर डाली, कहो, तब धान ला करके देते हैं परन्तु ऐसा कर डाला? दाल अलग, छाछ अलग, एकरस नहीं होता, वहाँ एकरस देखने को लगा, मूर्ख! यहाँ एक रस नहीं होता, यह तो देख! समझ में आया? अरे... ! उड़द की दाल ऐसी बनायी, धूल ऐसी बनायी, ऐसा हलवा एक दम लहलहाता आया, ऐसा घी टपकता (आया) वहाँ तो एकाकार (हो जाता है), मढ है। है? अरबी के टकडे ऐसे सरीके तले हए होते हैं न? और श्रीखण्ड, पूड़ी खाने बैठा हो तो मानो मूढ़ वहीं पूरा रत हो गया। भाई ! वह तो मिट्टी है, प्रभु! छह घण्टे में विष्टा होगी, यह शरीर ऐसा यन्त्र है। श्रीखण्ड और पूडी अन्यत्र कहीं कोठरी में डालोगे तो छह घण्टे में विष्टा नहीं होगी परन्तु यह अच्छा श्रीखण्ड फर्स्ट क्लास यहाँ डालोगे तो छह घण्टे में विष्टा होगी – ऐसा यह यन्त्र है। यह तो मिट्टी धूल है, बापू! यह आत्मा नहीं। आहा...हा... ! समझ में आया?
__ अन्तर में भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द से पूर्ण छलाछल भरा है। कहते हैं, ऐसे आत्मा की अन्तर श्रद्धा, सम्यक् अनुभव, उसका ज्ञान और उसकी रमणता (हो), उसे भगवान सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहते हैं। आहा...हा...! लो! यह आत्मा में रत होता है, मन के विचार बन्द हो जाते हैं, वचन और काया की क्रिया स्थिर हो जाती है.... उसी समय आत्मस्थिति होने से आत्मिक सुख का स्वाद आता है। मन छूट जाये, विकल्प छट जाये. आत्मा आनन्द अनभव में आवे तब सम्यग्दर्शन होने से. सम्यग्दर्शन होने पर उसे आत्मा के निर्विकल्प आनन्द का अनुभव हो जाता है। उसे सम्यग्दर्शन कहा जाता है। वह सम्यग्दर्शन होने के बाद उसे स्वरूप में स्थिरता, रमणता होती है, उसे चारित्र कहते हैं। समझ में आया? बाहर से वेष पलटे, और यह किया, इसलिए हमें सम्यग्दर्शन हो गया और चारित्र हो गया (– ऐसा नहीं है)। अनन्त बार यह थोथा कर-करके नौवें ग्रैवेयक तक गया। समझ में आया? 'द्रव्य संयम से ग्रैवेयक पायो, फेर पीछे पटकयौ'। यह सज्झाय में आता है। द्रव्य संयम, आत्मा के सम्यक् अनुभव दृष्टि बिना बाहर के