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गाथा - ८५
उत्साह वह राग में या संयोग में या अनुकूलता में (चालू रही) । उस उत्साह के आगे चिदानन्दभगवान अनन्त गुण के पिण्ड का अनादर हो जाता है, असातना होती है, उसका पता नहीं है। समझ में आया ? भगवान आत्मा एक समय में आत्मा को पकड़ने से, ज्ञेय करने से अनन्त गुण ज्ञान में ज्ञेय हो गये, प्रतीति में अनन्त गुण की प्रतीति हो गयी, स्थिरता में अनन्त गुण में अनन्त गुणरूप एकरूप आत्मा में भी स्थिरता हो गयी, वीर्य भी अनन्त गुणरूप एक द्रव्य की रचना करने के कार्य में वीर्य भी ऐसा कार्य करता
। आहा... हा...! समझ में आया ? एक-एक गुण को ग्रहण करने से नहीं होता परन्तु अखण्ड-अभेद एक आत्मा को ग्रहण करने से अन्दर व्याप्त रहे हुए समस्त गुणों का ग्रहण हो जाएगा। इसलिए धर्मी जीव निश्चल होकर एक भगवान आत्मा... बाह्य से उपयोग को सबसे समेट कर अन्दर चैतन्य में लगाता है। (यह कोई ) भाषा नहीं है, वस्तु है । भाषा से पार पड़े - ऐसा नहीं है ।
भगवान आत्मा... आहा... हा... ! अनन्तानन्त... अनन्तानन्त गुणरूप एक प्रभु है । मैं परमेश्वर साक्षात् प्रभु मैं ही हूँ - ऐसी महिमा आकर अन्दर में घुस जाए तो कहते हैं कि भगवान आत्मा में सर्व गुण व्याप रहे हैं, इसलिए उसका ध्यान करने से मुख्य तीन गुण प्रगट हो जाते हैं। अनन्त तो होते हैं । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र अपने निज एकरूप में तीनों अंश आ जाते हैं। कोई कहे कि ध्यान करने से उसमें दर्शन और ज्ञान (दो ही) आये, चारित्र नहीं आया । मोक्षमार्ग की अपेक्षा से ( ऐसा नहीं है... ) ऐसे तो अनन्त गुण प्रगट हैं, भगवान आत्मा अपना पूर्ण स्वरूप प्रभु, उसमें दृष्टि लगाने से दृष्टि, ज्ञान और स्थिरता तीनों अंश उस समय प्रगट हुए। अनन्त गुण प्रगट हुए, यहाँ से तो मोक्षमार्ग लिया है न!
वही सम्यक् तप है । देखो, समझ में आया? वह सम्यक् तप है। भगवान आत्मा अनन्त गुण का एकरूप (स्वरूप है), ऐसी अन्तर्दृष्टि करने से इच्छा उत्पन्न नहीं हुई और अतीन्द्रिय आनन्द की प्रतपना, अतीन्द्रिय आनन्द का तपना, विशेष शोभित होना... जैसे स्वर्ण गेरु से ओपता है / शोभता है, गेरु... गेरु... गेरु को क्या कहते हैं ? स्वर्ण... गेरु । ऐसे भगवान आत्मा अपनी उग्र दृष्टि से जहाँ आत्मा को पकड़ा, वहाँ इच्छा का अभाव हुआ