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योगसार प्रवचन (भाग - २)
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आया? जिसे अनेक शास्त्रों का ज्ञान हो परन्तु सम्यक्त्व न हो तो वह ज्ञानी पण्डित नहीं है । ओहो...हो... ! एक मेंढक, आत्मा का आश्रय करके - यह आनन्द है... नौ तत्त्वों के शब्द का ख्याल नहीं (परन्तु ) यह अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप है, यह इनसे विरुद्ध जो रागादि हैं, वे आनन्द की जाति नहीं हैं, दुःख है। बस ! इसमें सब आ गया, आनन्द का पूर्ण स्वरूप वह जीव है, उससे विरुद्ध वह अजीव है । आनन्द की ओर की रुचि, प्रीति का परिणमन होना, वह संवर- निर्जरा है। उससे राग (विपरीत है), वह आश्रव-बन्ध का ज्ञान हुआ। समझ में आया ? शब्दों की कोई आवश्यकता नहीं है, वहाँ भाव की आवश्यकता है।
भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द का स्पर्श हुआ तो सारा - नवतत्त्व का ज्ञान हो गया। समझ में आया ? अतीन्द्रिय आनन्द रुचि, भास हुआ, वेदन हुआ तो पूरा आत्मा अतीन्द्रिय आनन्दमय है, वह जीव हुआ। वह पर्याय प्रगट हुई, वह संवर निर्जरा हुए इनसे विरुद्ध जितने यह पुण्य-पाप के विकल्प आकुलता है, वह आनन्द की जाति नहीं, उसका ज्ञान हो गया और इस द्रव्य से विरुद्ध दूसरे द्रव्य हैं, यह आनन्दमूर्ति पूर्ण है, इससे विरुद्ध हैं, वे सब अजीव हैं ।
मुमुक्षु : ऐसी विद्या कहाँ से याद रखना ?
उत्तर : यह आयी न, देखो न ! यह कहते हैं न, क्या कहते हैं ? विद्या क्या वहाँ कहीं रटना है ? शब्द रटना है ? अन्तर्मुख की दृष्टि हुई, वहाँ सर्वस्व हुआ। यह पाठ तो चलता है । पाटनीजी ! आहा... हा... ! समझ में आया ?
सम्यक्त्व न हो तो वह ज्ञानी पण्डित नहीं है, सम्यक्त्व हो तो ही वह ज्ञानी है। उसका शास्त्र ज्ञान सफल है। द्वादशांग वाणी का सार यही है कि अपने आ को परद्रव्यों से, परभावों से भिन्न.... परद्रव्य और परद्रव्य के लक्ष्य से उत्पन्न हुए भाव, उनसे भिन्न शुद्ध द्रव्य जाना जाए.... अकेला प्रभु शुद्ध स्वरूपी जाने, समझ में आया ?
वहाँ यह कहा न ? छठवीं गाथा में यह कहा, परद्रव्य से भिन्न ' उपास्यमानः ' ऐसा शुद्ध कहा जाता है। यह 'समयसार' की छठवीं गाथा 'ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो' परद्रव्य से भिन्न, उपास्यमानः क्योंकि परद्रव्य से लक्ष्य छोड़कर यहाँ उपास्यमान
तो शुद्धता प्रगट हुई। शुद्धता प्रगट हुई तो यह पूरा ( आत्मा ) शुद्ध है, उसके लिए शुद्ध