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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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उत्तर : शान्त निर्वाण (अर्थात्) अकषाय, कषाय सब मिट गयी । कषाय की सब अग्नि शान्त हो गयी, अकेला अकषाय शान्त समुद्र फट पड़ा, वह शान्त मोक्ष है। यह कषाय वह संसार और शान्त वह मोक्ष । निर्वाणक्षेत्र का कुछ आता है न ? छेदता है, ऐसी भाषा कहीं आती है । सिद्ध... सिद्ध...... शब्द आता है, सब कहाँ याद रहता है ? शीतलीभूत हो जाता है, ऐसा। अकषाय परिणमन शीतलीभूत शान्तदशा, वह मोक्ष .... सकषायभाव, वह संसार । समझ में आया ? निर्वाण ... निर्वाण की कुछ व्याख्या की है। निर्वाण की कहीं व्याख्या की है । 'सर्वार्थसिद्धि' में या अन्यत्र कहीं की है। निर्वाण का अर्थ किया है। ऐसा शान्त कर दिया, ऐसा कुछ आता है । मस्तिष्क में है, शान्त हो गया... हिम... हिम... ठण्डा हिम... जैसे पड़े और दग्द कर दे, पौष महिने में ठण्डी हिम वन को जला देती है। यह ठण्डी अविकार पर्याय जहाँ प्रगट हुई, ( उसमें) संसार जला डाला... शान्त... शान्त... शान्त.... है ?
मुमुक्षु : सिद्धिभूदा में आता है ?
उत्तर : सिद्धिभूदा में आता है, सिद्धिभूदा में ऐसा आता है। सिद्धिभूदा में आता है ख्याल में है। समझ में आया ? आहा... हा... ! ' उपशम रस बरसे रे प्रभु तेरे नयन में... ' आता हैन ? कर कमल में कृपामृत, आता है न ? है ? ऐसा भक्त अनेक प्रकार से कहे। यहाँ तो उपशम की बात कहनी है । उपशम अर्थात् अकषायभाव । अकषायभाव की पूर्णता, वह वीतराग । आत्मा वह अकषायस्वरूप है, ऐसा अकषायभाव पर्याय में प्रगट होना, वह शान्तभाव है। समझ में आया ?
वही आत्मस्वभाव है... आत्मा में रागरहित... भाषा में सरल है, हाँ ! पुरुषार्थ में उग्रता है। भाषा में कोई भाव आ नहीं जाते... कहते हैं कि आत्मस्वभावभाव में एकाग्र होने से रागरहित निर्विकल्प दृष्टि, ज्ञान और स्थिरता होवे, वह निर्विकल्प समाधि है, वह मोक्षमार्ग है, वही आत्मस्वभाव है । रागभाव, आत्मस्वभाव नहीं; व्यवहाररत्नत्रय, आत्मस्वभाव नहीं है । आहा... हा...! व्यवहाररत्नत्रय, अनात्मभाव है; आस्रव है न! इसलिए अनात्मभाव है।
(वही) आत्मस्वभाव है । यहीं यथार्थ में मोक्षमार्ग है... भगवान आत्मा अपने