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गाथा-८२
मुमुक्षु : इसका नाम त्याग, बाहर का...
उत्तर : फिर स्थिरता होती है तो क्रम-क्रम से राग घट जाता है, उतना निमित्त का संयोग छूट जाता है, बस! यह त्याग हुआ। बाहर का त्याग क्या? बाहर की वस्तु क्या (अन्दर) घुस गयी है तो त्याग करना है ? राग-द्वेष का विकार अपनी पर्याय में है, उसे अपना मानता है, उसे छोड़ दे। अपना (स्वरूप) आनन्दकन्द शुद्ध चैतन्य है, उसकी दृष्टि कर तो दृष्टि और ज्ञान की परिणति में राग का त्याग हो जाएगा। पश्चात् जितनी स्वरूप में स्थिरता होगी, उतना राग / अस्थिरता मिट जायेगी, उतना संयोग निमित्त से तेरा लक्ष्य छूट जाएगा। जहाँ करना है वहाँ कर न, जहाँ नहीं करना वहाँ करने जाता है। छोड़ो बाहर की चीज । अन्य कहते हैं, बाहर की चीज छूटे तो राग छूटता है – ऐसा कहते हैं । लो!
मुमुक्षु : शास्त्र में आता है।
उत्तर : आता है, उसका अर्थ क्या? पर का लक्ष्य छोड़ दे, दूसरा क्या है ? यहाँ आत्मा में लक्ष्य कर। भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द का सागर पड़ा है। चैतन्यमूर्ति, अतीन्द्रिय आनन्द निकाल, अनन्त... अनन्त... अनन्त... अनन्त... अनन्त... निकालेगा तो भी वहाँ कमी नहीं होगी। आहा...हा... ! इतने अतीन्द्रिय आनन्द की खान आत्मा है।
जैसे यह ज्ञान, ज्ञानमय है। यह आत्मा जैसे ज्ञान, ज्ञानमय है, वैसे वह अतीन्द्रिय आनन्दमय है। पुण्य-पाप रागमय आत्मा है ही नहीं। आहा...हा...! समझ में आया? प्रवीणभाई ! देखो, यहाँ प्रवीण रोगी और प्रवीण (वैद्य) दोनों लिए हैं। दोनों (प्रवीण होने) चाहिए। उस रोगी को भान होना चाहिए कि कौन-सा रोग है? कुछ का कुछ बतावे तो वह सारे रोग कहाँ पकड़ सकेगा? बहुत जाँच करावे कि हमें यहाँ दु:खता है। यह बेन नहीं? जगजीवनभाई की पुत्री ने बहुतों को बताया परन्तु कोई पकड़ नहीं सका और अन्दर रोग है, मुझे बहुत दुःख होता है... कहाँ गये जगजीवनभाई? उनकी पुत्री परसों कैरोसीन छिड़क कर जली। किसी ने परखा नहीं कि रोग क्या है?... लगा दी। जैसे लगाई ऐसे फट...फट भगवान... भगवान... । दूसरी कोई बात नहीं। अरहन्त... अरहन्त... अरहन्त... णमो अरहन्ताणं... जली, जलकर यहाँ शरीर सुलगता है, भबका... भबका इस प्रकार के भाव आये। हो गया... फिर विचार बदले। यह तो परिणामों की विचित्रता है। रोग नहीं