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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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मुमुक्षु : बाजार में से लाकर खाकर बटका भरता है?
उत्तर : कौन बटका करे? आहा...हा...! भाई! वे तो जगत् के पदार्थ अपनी वर्तमान अवस्था से परिणमित हो रहे हैं, पूर्व की अवस्था से बदल रहे हैं। उसमें तेरे करने भोगने का क्या आया?
स्वयं परमात्मस्वरूप... भगवान आत्मा (है)। स्वयं निजस्वरूप से तो परम स्वरूप ही, परमात्मा ही है। आठ कर्म, रागादिभाव कर्म, शरीर आदि (नोकर्म) से भिन्न है, अतीन्द्रिय सुख ही सच्चा सुख है - ऐसी प्रतीति लाकर बार-बार अपने ज्ञान-दर्शन स्वभावधारी आत्मा की भावना करते रहने से मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम-क्षयोपशम या क्षय हो जायेगा। ऐसा कहते हैं। समझे? भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द सम्पन्न स्वरूप परिपूर्ण है – ऐसी बारम्बार एकाग्रता करने से दर्शनमोह आदि का क्षयोपशम, क्षय हो जाता है।
तब यह जीव सम्यग्दर्शन-गुण का प्रकाश कर सकेगा।मूढ़ता चली जायेगी, सम्यक्ज्ञान हो जायेगा, बस! दर्शन और ज्ञान दो ले लिये। तब इसे निर्वाण पद पर पहुँचने की योग्यता हो जायेगी।वे दो लिये हैं। सही न? दर्शन और ज्ञान । चारित्र बाकी रहा। समझ में आया? इसलिए यह शब्द प्रयोग किया है? ठीक किया है। निर्वाण. सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान – अपने शुद्धस्वरूप परमानन्द का ज्ञान और परमानन्द की दृष्टि हुई तो सम्यग्दर्शन, ज्ञानी हुआ तो मोक्ष प्राप्त करने के योग्य हो गया। अल्प काल में उसका मोक्ष होगा। वह सम्यग्दर्शन ज्ञान के बिना लाख-करोड़ क्रियाकाण्ड करे – दया, दान, व्रत, भक्ति के परिणाम (करे परन्तु) उनसे कभी सम्यग्दर्शन-ज्ञान अथवा मोक्ष का अधिकारी नहीं होगा। कहो समझ में आया? तब बारह कषाय बाकी रहेंगी, चार अनन्तानुबन्धी गये; सोलह में से बारह बाकी रहे, नोकषाय भी है। चारित्र की कमी है। चौथे गुणस्थान में इक्कीस प्रकार के चारित्र-मोहनीय के उदय से राग-द्वेष हो जाता है। उसको वह रोग जानता है। कहो समझ में आया?
मन-वचन-काय की क्रिया को अपना कर्तव्य नहीं जानता है... आहा...हा...! जड़ की क्रिया, शरीर, वाणी, मिट्टी की जो पर्याय / क्रिया होती है, उसे धर्मी अपना कर्तव्य