________________
९२
गाथा-७९
को अपना मानना है भ्रम कूप है। मिथ्यार्थ का कुआँ है । भगवान शुद्ध चैतन्य का समुद्र है। शुद्ध चेतना का सिन्धु...सिन्धु...सिन्धु। ऐसी अन्तर में अपने आत्मा की दृष्टि करने का नाम सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। यह ७८ (गाथा पूरी हुई।)
चार को छोड़कर चार गुण विचारे चउ कसाय सण्णा रहिउ चउ गुण सहियउ वुत्तु। सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ जिम परु होहि पवित्तु॥७९॥
कषाय संज्ञा चार तज, जो गहते गुण चार।
हे जीव! निज रूप जान तू, होय पुनीत अपार॥ अन्वयार्थ - (चउ कसाय ) चार क्रोधादि कषाय (सण्णा) चार संज्ञा-आहार, भय, मैथुन तथा परिग्रह ( रहिउ) रहित (चउ गुण सहियउ अप्पा वुत्तु) व दर्शन ज्ञान सुख तथा वीर्य, चार गुणसहित आत्मा कहा गया है (जीव तुहं सो मुणि) हे जीव! तू उसका ऐसा मनन कर (जिम परु पवित्त होहि) जिससे तू परम पवित्र हो जावे।
७९ । चार को छोड़कर चार गुण विचारे।
चउ कसाय सण्णा रहिउ चउ गुण सहियउ वुत्तु।
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ जिम परु होहि पवित्तु॥७९॥
चार क्रोधादि कषाय, चार संज्ञा - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह... चार संज्ञा । क्रोध, मान, माया, लोभ - चार कषाय, और आहार की संज्ञा, भय की संज्ञा, विषय की संज्ञा और परिग्रह की संज्ञा से रहित होकर दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य इन चार गुणों से सहित आत्मा कहा गया है। लो! समझ में आया? चारित्र लिया है न? चारित्र में से दो निकाले – सुख और वीर्य । चार बनाये, चार।
भगवान आत्मा – दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य चार गुणसहित आत्मा है। उनसे सहित