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गाथा - ७८
से है । ध्याता-ध्येय व्यवहार से । सुन्दर, असुन्दर ... यह सुन्दर, असुन्दर भेद व्यवहार है । आत्मा के स्वभाव की दृष्टि में यह भेद नहीं है । आहा... हा.... !
व्यवहार से ऐसा होने पर भी निश्चयदृष्टि से देखने से स्वभावधारी भगवान पर का जानने-देखनेवाला ही है, भेद करनेवाला नहीं । रोगी, निरोगी ... व्यवहार कहता है यह रोगी, निरोगी है। दो-दो भंग (लिये हैं) । धनिक-निर्धन, विद्वान् - मूर्ख, बलवान-निर्बल, कुलीन - अकुलीन, साधु - गृहस्थ, यह भी व्यवहार के भेद हैं। स्वभाव की दृष्टि में भेद नहीं है, समझ में आया? ऐसी दृष्टि से देखना वह निश्चय सम्यग्दृष्टि है।
राजा प्रजा, देवनारकी, पशु मानव, स्थावरत्रस, सूक्ष्म वादर, पर्याप्त अपर्याप्त, प्रत्येक साधारण, पापी - पुण्यात्मा, लोभी - संतोष, मायावी - सरल, मानी - विनयवाला यह सब व्यवहार है । क्रोधी कपटवाला, स्त्री-पुरुष, बालक और वृद्ध, अनाथ - सनाथ, , सिद्ध और संसारी, ग्रहण करने योग्य और त्यागने योग्य का भेद मिलता है । व्यवहार में से देखो तो ग्रहण करने योग्य और त्यागने योग्य दिखता है। समझ में आया ? वहाँ विषय भोग का लोलुपी और कषाय का धारक जीव इष्ट के प्रति राग और अनिष्ट के प्रति द्वेष करता है। बाहर के व्यवहार में दिखता यह सारा जगत राग, द्वेष मोह उत्पन्न करने का निमित्त बन जाता है । इसलिये ज्ञानी को राग, द्वेष मोह भावों की मलिनता नहीं हो इसलिये निश्चय में से जगत को देखना चाहिए। सभी द्रव्य है, परिपूर्ण पदार्थ भगवान आत्मा है आह.... आह... ! शत्रु मित्र ऐसा भेद नहीं है, मूर्ख विद्वान का भेद नहीं है, माता-पिता का ( भेद) नहीं है। ध्याता ध्येय का नहीं है । आह... ! एक वस्तु अभेद चिदानन्दस्वरूप है - ऐसी दृष्टि का अभ्यास करना । समझ में आया ।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तीनों आत्मा के गुण हैं । आत्मा स्वभाव से यथार्थ प्रतीति का धारक है। ये तीन गुण लिये न ? तीन । भगवान आत्मा वास्तविक रूप से यथार्थ प्रतीति का धारक ही है। उसका स्वभाव यथार्थ श्रद्धा-प्रतीति धारक आत्मा है । उसमें से यथार्थ प्रतीति निकालने की है । है उसमें से निकालना है, उसमें क्या है ? – ऐसा कहते हैं। समझ में आया । भगवान आत्मा यथार्थ प्रतीति का धारक है।
स्व को स्व और पर को पर यथार्थ मानने वाला है... ऐसा ही है । स्व को