________________
८९
योगसार प्रवचन (भाग-२) यह वह क्या है ? मैं विकार, पुण्य-पाप के विकार से मैं रहित हूँ, मैं शरीर-वाणी, नोकर्म से भी पृथक् हूँ। किस पुरुषार्थ गति में यह बात ज्ञान में आती है ? आहा...हा...! समझ में आया? अल्पज्ञ, अल्पदर्शी, रागादि और निमित्त का सम्बन्ध होने पर भी उड़ा दे! दृष्टि उसका स्वीकार नहीं करती। मैं आठ कर्म से रहित पूर्णानन्द हूँ। कर्म शरीर से रहित हूँ, वाणी से रहित हूँ, विकार से रहित हूँ। समझ में आया? – ऐसे आत्मा का अन्तर स्वभाव, अपना स्वभाव पर से भिन्न जानना। (फिर) आठ कर्म की बात ली है।
जैसे विवेकी जीव मलिन पानी में निर्मली डालकर... निर्मली समझे? औषधि आती है न? मिट्टी को पानी से अलग करके निर्मल पानी को पीता है, वैसे ही ज्ञानी जीव भेदविज्ञान के बल से... अपने शुद्ध ध्रुवस्वरूप तरफ लक्ष्य करके पुण्य-पाप के राग से हटकर, राग और स्वभाव की एकता को तोड़कर, पर से भिन्न भेदज्ञान के बल से... देखो ! बल से... मैं शुद्ध चैतन्य पदार्थ भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द हूँ – इस प्रकार राग और विकल्प से भेदज्ञान के बल से... समझ में आया?
राग-द्वेष-मोह को आत्मा से भिन्न करके वीतराग विज्ञानमय आत्मा का अनुभव करता है। उस पुरुषार्थ की गति कितनी है? आहा...हा...! कौन करता है? समझ में आया? जिस दृष्टि में वर्तमान अवस्था अल्पज्ञ, रागवाली होने पर भी और उसमें कर्म का निमित्त होने पर भी, वह दृष्टि अन्तर में अल्पज्ञ, राग और कर्म के सम्बन्ध से रहित मैं हूँ – ऐसा भेदज्ञान करके अपने स्वरूप में वीतरागपने का अनुभव करती है। समझ में आया? वह अल्प काल में मोक्ष को प्राप्त करता है। जरा लम्बी बात की है।
व्यवहारनय से देखने पर संसारी जीवों में भेद दिखता है। व्यवहार से भेद दिखता है। बहुत दृष्टान्त दिये हैं, मित्र, शत्रु दिखता है। स्वभाव की दृष्टि हो तो कोई शत्रु -मित्र नहीं है। व्यवहार से यह मित्र और शत्रु (है ऐसा कहा जाता है) । माता और पिता व्यवहार से दिखते हैं । आत्मा के माता-पिता कैसे? आत्मा को किसी ने उत्पन्न किया है तो वास्तविक माता-पिता है ? निश्चय से भगवान माता-पिता रहित, शत्रु-मित्र की दृष्टि रहित है। व्यवहार से दिखता है परन्तु उस दृष्टि को बदलकर निश्चय से देखने की दृष्टि करना । पुत्र-पुत्री व्यवहार से (कहे जाते हैं)। स्वामी, सेवक । स्वामी और सेवक व्यवहार