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योगसार प्रवचन ( भाग - २ )
स्व और पर को पर ऐसा श्रद्धान करने का उसका वैसा त्रिकाल स्वभाव है। वस्तु ऐसा है न! यह दर्शन की बात की। लोकालोक के सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक साथ जानने वाला है । सर्व लोक और अलो छह द्रव्य उनके गुण और पर्यायों को एक साथ जाननेवाला है - ऐसा उसका स्वभाव है । चारित्र गुण से वह परम वीतराग है। समझ में आया ? रत्नात्रयस्वरूप यह आत्मा अभेददृष्टि से एकरूप है। ऐसा। वे तीन भेद कहे परन्तु रत्नात्रय - दर्शनज्ञान - चारित्र रतनात्रय स्वरूप यह आत्मा अभेद दृष्टि से एकरूप है। दर्शन - ज्ञान और चारित्र का भेद भी दृष्टि का विषय- अभेद में नहीं है ।
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शुद्ध स्फटिक के समान निर्मल है। भगवान आत्मा शुद्ध स्फटिक की तरह अन्दर निर्मलानन्द प्रभु है। परम ज्ञान, परम शान्त और परमानन्दमय है । इस प्रकार बारम्बार अपने आत्मा का ध्यान करना; फिर परिणामों की स्थिरता होने पर स्वयं आत्मा अनुभव प्रगट होगा। यही मोक्ष का मार्ग है । उस शुद्ध स्वरूप की बारम्बार ऐसी भावना करने से अनुभव होगा, उसका नाम ही मोक्ष का मार्ग है। दूसरा कोई मार्ग नहीं है। मोक्षमार्ग के लिये इन्हें ठीक बैठा है । निमित्त में जरा गड़बड़ आती है । कहो, समझ में आया।
'समयसार' में यह दृष्टान्त दिया है। मैं अपने द्वारा ही अपने आत्मा के शुद्ध रस पूर्ण चेतन्य प्रभु का अनुभव करता हूँ। कलश है। मैं अपने द्वारा ही... मेरे आत्मिक शुद्ध रस से, आत्मिक शुद्ध रस से पूर्ण चैतन्य प्रभु मैं हूँ, उसका अनुभव करता हूँ। मैं केवल शुद्ध ज्ञान का भण्डार हूँ, मुझे मोह कर्म के साथ बिलकुल कोई सम्बन्ध नहीं है। जो श्लोक बोलते हैं वही है न ?' मोह कर्म ममनाहिं, नाहिं भ्रम कूप है, शुद्ध चेतना सिन्धु हमारो रूप है । कहे विचक्षण पुरुष सदा में एक हूँ।' धर्मी अपने आत्मा का ऐसा विचार करता है। ‘कहे विचक्षण पुरुष सदा मैं एक हूँ, अपने रसौं भयो अनादि टेक हूँ । ' अनादि से मेरा स्वरूप ऐसा है।' मोह कर्म मम नाहिं, नाहिं भ्रम कूप है; शुद्ध चेतना सिन्धु हमारो रूप है ।' आह...! बनारसीदास ने इस कलश से हिन्दी बनाया है, हिन्दी बनाया है । समझ में आया।‘शुद्ध चेतना सिन्धु हमारो रूप है।' वह भ्रम कूप है, पुण्य पाप के विकल्प