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गाथा-७६
हो, क्षयोपशमभाव हो, उदयभाव और पारिणामिकभाव, पाँचों ही भाव एक समय में होते हैं। मांगीरामजी! यह थोड़ी सूक्ष्म बात है। यह बातें तो सम्प्रदाय में पहले से करते थे। (संवत) १९७०-७१-७२, उसमें कोई नयी बात नहीं है। एक समय में पाँच भाव होते हैं. यह तो पहली कक्षा में भी था। समझ में आया? आता है. उन लोगों में आता है परन्त वे कुछ अलग नहीं करते, समुच्चय पड़ जाते हैं। बहुत सों का वाचन तो कितने ही को सभा में व्याख्यान देने की विधि कैसे सीखना, यह बहुत अंशों में होता है। यह कला आयी तो दीक्षा लेना सफल नहीं तो क्या दीक्षा लें? कोई गिनता नहीं, बैठे होंगे। मुँह के आगे ऊँचे बैठना यह सफल। धूल भी सफल नहीं है, सुन न अब, दूसरे को समझाना यह सब तो विकल्प है। बाहर निकले उसका फल क्या? बाहर निकले हों तो लोगों में ऐसा होता है कि आहा...हा...! महाराज त्यागी हुए परन्तु प्रसिद्धि प्राप्त की। हाँ, हमारे गाँव को प्रसिद्धि मिली। जिस गाँव के हों, उस गाँव के लोग ऐसा कहते हैं । यह मार्ग होगा? प्रसिद्धि तो आत्मा में अन्दर प्राप्त करना है, वह प्रसिद्धि है, आत्मप्रसिद्धि।
पाँच भाववाला आत्मा... है ? एक समय में भी पाँच भाव होते हैं, हाँ! कहा न? ये पाँचों भाव आत्मा में ही होते हैं। कर्मों में और पुद्गल में तो एक पारिणामिकभाव और अधिक तो कर्म में उदय और पारिणामिक। आत्मा में ही पाँच भाव होते हैं । उसका विचार इसे करना।
आत्मा अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु - इन पाँच परमेष्ठी पद का धारक है... पाँच परमेष्ठी के पद की पर्याय का धारक भगवान आत्मा है । मैं ही स्वयं अरहन्त की पर्याय का धरनेवाला मेरा तत्त्व है। वह शक्ति मुझ में पड़ी है। सिद्ध की पर्याय को धरने की मेरी शक्ति पड़ी है। आचार्य अर्थात् निर्मल गुण की पर्याय को आचार्य कहते हैं, किसी विकल्प और बाहर के क्रियाकाण्ड को नहीं। आचार्य के पाँच - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, तपाचार निर्विकल्प जो आचार, उसकी पर्याय का पिण्ड तो मैं आत्मा हूँ। ऐसे ही उपाध्याय की निर्मल पर्याय और साधु की निर्मल पर्याय का धारक मैं आत्मा हू। इस प्रकार इसे आत्मा में पाँच पद का धारकरूप से विचार करना, वह व्यवहार है। वह भी व्यवहार है। कहो, समझ में आया? ओ...हो...! ठीक लिखावट की है। हाँ!