________________
५०
गाथा-७५
वह समताभाव प्रगट होता है, उसे सम्यग्दर्शन और धर्म कहते हैं। धर्म कोई ऐसी चीज नहीं है कि ऐसा करें और ऐसी पूजा करें और भक्ति किया और व्रत किया और यह पालन किया और उपवास किया... होली करे! उपवास का विकल्प तो शुभराग है। समझ में आया? यह बात दुनिया से अलग प्रकार की है। स्वानुभव में लीन होकर सर्व नयों के विचार से रहित आत्मानन्द में मस्त हो जावे। (फिर) 'समाधिशतक' का दृष्टान्त दिया है।
आप ही जिन है यह अनुभव मोक्ष का उपाय है जो जिण सो हउँ सो जि हउ एहुउ भाउ णिभंतु। मोक्खहँ कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु॥७५॥
जो जिन है सो मैं हि हूँ, कर अनुभव निर्धान्त।
हे योगी! शिव हेतु तज, मन्त्र-तन्त्र विभ्रान्त॥ अन्वयार्थ - (जो जिण सो हउं) जो जिनेन्द्र परमात्मा है वह मैं हूँ (सो जि हउं) वही मैं हूँ ( एहउ णिभंतु भाउ) ऐसी ही शङ्कारहित भावना कर (जोइया ) हे योगी! ( मोक्खहं कारण अण्णु तंतु ण मंतु ण) मोक्ष का उपाय यही है और कोई तन्त्र या कोई मन्त्र नहीं है।
अब ७५, ७५ गाथा है न? स्वयं ही जिन है... स्वयं परमार्थस्वरूप है। यह अनुभव मोक्ष का उपाय है। देखो,
जो जिण सो हउँ सो जि हउ एहुउ भाउ णिभंतु। मोक्खहँ कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु॥७५॥
७५ गाथा! जो जिनेन्द्र परमात्मा है वह मैं हूँ... जो पूर्णानन्द वीतरागदशा प्राप्त हुई, जिन्हें आत्मा की शक्ति की पूर्ण विकास परमदशा प्राप्त हुई, वैसा परमात्मा वह मैं हूँ।