Book Title: Yogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Author(s): Suvratmuni Shastri
Publisher: Aatm Gyanpith
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प्रस्तावना
वस्तु में अहम् बुद्धि और अहम् में वस्तु बुद्धि दुःख जनक मोह का कारण है । वस्तु एवं अहम् का विवटोकर ग तथा अहम् को वास्तविक अहम् में स्थापना, योग स्वरूप है।
व्यक्ति एक है, दृश्य एक है, दृष्टियाँ अनेक है । दृष्टि ही दृष्टा के लिए दृश्य स्वरूप निश्चित करती है। इसमें इन्द्रियदृष्टि अत्यन्त स्थूल हैं। ओघदृष्टि का प्रतिरूप है। भ्रन एवं माया की जननी है । आत्म दृष्टि सूक्ष्मतम है। योग दृष्टि का प्रतिरूप है । परिशुद्ध व यथार्थ ज्ञान की जननी है।
यह ओघदृष्टि, वस्तु-देह बुद्धि से उत्पन्न परिछिन्न होती है, जो वासना का उद्गम स्थान है। वासना का उद्भव असौन्दर्य में सौन्दर्य, अययार्थ में यथार्थ तथा अशुद्धि में शुद्धि का बोध कराता है। भ्रन से उपरत यथार्थ में 'सत्यं, शिवं सुन्दरम्' का आत्यन्तिक अनुभवन ही योग है।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग को ही संसार विछिन्नता का मूल कारण बतलाया है। योग उत्तम कल्पवृक्ष है, उत्कृष्ट चिन्तामणि रत्न है। योग सब धर्मों में प्रधान है तथा सिद्धि (मक्ति) का अनन्य हेतु है ।। वास्तव में संयोग की दासता एवं वियोग का भय संसार आबद्धता तथा अभाव रूप अतप्ति का मूलकारण है एवं योग उसका परम व अचूक निवारण है।
योग एक आधार है व योग एक युक्ति है संसार सागर से पार उतरने के लिए। योग एक तीक्ष्ण कुठार है, समस्त विपदाओं का उन्मूलन करने के लिए। दुःख का जीवन के साथ जो संयोग है, उससे विमुक्त होना ही योग है। योग से प्राप्त मनोनिग्रह ही संसार-दुःख से मुक्त होने का एक मात्र उपाय है। इसी कारण गीता में भी ज्ञानी और तपस्वी की अपेक्षा योगी को अधिक श्रेष्ठ बताया है। शास्त्रज्ञानी (द्रव्य ज्ञानी) एवं शारीरिक कष्ट रूप (द्रव्य तप) को अपेक्षा आत्म-स्थापना रूप योग इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि आत्मस्थापना ही विद्वान् का ज्ञानी में एवं द्रव्य तप
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