Book Title: Vyavahar Sutram Part 03
Author(s): Munichandrasuri
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir Surat
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्री
यथा अपसरताऽपसरत यूयं, न किमप्यालोचनया प्रयोजनमिति। अथ सा निर्ग्रन्थी स्वभावत एवोरालशरीरा सविकारा दृष्ट्वा अपसरेति भणिता सती अपसृता तथापि तस्याऽऽलोचनाचार्यस्य यदि तस्या उपरि विवद्धितो रागस्तर्हि तस्मिन् सति यतनया चिकित्सा कर्तव्या ॥२३५४॥
व्यवहारसूत्रम्
पंचम
उद्देशकः
१०२६ (A)
तामेव यतनामाहअण्णेहिं पगारेहि, जाहे नियत्तेउ सो न तीरति उ । घेत्तूणाऽऽभरणाई, तिगिच्छ जयणाए कायव्वा ॥२३५५॥
यदा अन्यैः प्रकारैस्तं भावं निवर्तयितुं न शक्नोति तदा तस्याः संयत्या आभरणानि वस्त्राणि गृहीत्वा यतनया चिकित्सा कर्तव्या ॥२३५५ ॥ एनामेवाहजारिससिचएहि ठिया तारिसएहिं तमस्सती वरिया । संभलि विणोककेयण, वेलयणं चिहुरगंडेहिं ॥२३५६ ॥
सूत्र २०
गाथा ४२३५५-२३६०
वैयावृत्त्य|करण विधिः
१०२६ (A)
| १. "णाऽऽवरणाई- मो. ॥ २. आवरणानि- मो ॥३. विणोयके सं.॥
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540