Book Title: Vyavahar Sutram Part 03
Author(s): Munichandrasuri
Publisher: Omkarsuri Gyanmandir Surat
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्री
व्यवहार
सूत्रम् पंचम
उद्देशकः १०३० (A)
एषणीयाऽनेषणीयविधौ सम्यक् कुशला। तथा व्यवसायिनी। या च स्थिरत्वे वर्तते, स्थिरा इत्यर्थः। तथा कृतकरणा, चिरप्रवजिता, बहुश्रुता। तथा या पारिणामिकी॥ २३६५ ॥ गम्भीरा, मार्दविता संजातमार्दवा मितवादिनी, अल्पकुतूहला। ईदृशी आर्या गणाभावे ग्लानं [साधुं] खलु प्रतिजागर्ति ॥२३६७॥
सम्प्रति व्यवसायिन्यादिपदानां व्याख्यानार्थमाहववसायी कायव्वे, थिरा उ जा संजमम्मि होइ दढा । कयकरण जीए बहुसो, वेयावच्चा कया कुसला ॥२३६८॥
या कर्तव्ये व्यवसायेऽधिकारिणी नाऽऽलस्येनोपहता तिष्ठति सा व्यसायिनी, संयमे भवति दृढा सा स्थिरा, यया बहुशो वैयावृत्त्यानि कृतानि सा कृतकरणा, कुशला | इत्यर्थः ॥ २३६८॥
चिरपव्वइय समाणं, तिण्हुवरि बहुस्सुया पकप्पधरी । __ परिणामिय परिणाम, जा जाणइ पोग्गलाणं तु ॥२३६९॥ १. सायकारिणी- खं. सं. मु. मो. ॥ २. लस्योप० मो.॥
गाथा २३६८-२३७४
वैयावृत्त्य विधिः
१०३० (A)
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540