Book Title: Vyakhyapragnaptisutram Part 03
Author(s): Divyakirtivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
View full book text ________________ 26 शतके उद्देशकः | श्रीभगवत्यङ्गं श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-३ / / 1562 // सूत्रम् 817 उक्ता इह त्वाधौ द्वावेव, यत एते ज्ञानावरणीयमबद्धा पुनर्बन्धका न भवन्ति, कषायिणां सदैव ज्ञानावरणबन्धकत्वात्, चतुर्थस्त्वचरमत्वादेव न भवतीति, वेयणिज्जे सव्वत्थ पढमबीय त्ति, तृतीयचतुर्थयोरसम्भवात्, एतयोर्हि प्रथमः प्रागुक्तयुक्तेन / संभवति द्वितीयस्त्वयोगित्व एवं भवतीति॥२-३॥ आयुर्दण्डके अचरिमे णं भंते! नेरइए इत्यादि, पढमततिया भंग त्ति, तत्र प्रथमः प्रतीत एव द्वितीयस्त्वचरमत्वान्नास्ति, अचरमस्य ह्यायुर्बन्धोऽवश्यं भविष्यत्यन्यथाऽचरमत्वमेव न स्यात्, एवं चतुर्थोऽपि, तृतीयेतुन बध्नात्यायुस्तदबन्धकाले पुनर्भन्त्स्यत्यचरमत्वादिति,शेषपदानांतुभावना पूर्वोक्तानुसारेण कर्त्तव्येति॥ बंधिसयं ति प्रत्युद्देशकं बन्धीतिशब्देनोपलक्षितं शतं बन्धिशतम् // 4-6 // // 817 // षड्विंशं शतं वृत्तितः परिसमाप्तमिति // 26 // येषां गौरिव गौः सदर्थपयसादात्री पवित्रात्मिका, सालङ्कारसुविग्रहा शुभपदक्षेपा सुवर्णान्विता। निर्गत्यास्यगृहाङ्गणादुधसभाग्रामाजिरंराजयेद्, ये चास्यां विवृतौ निमित्तमभवन्नन्दन्तु ते सूरयः॥१॥ // इति श्रीमच्चन्द्रकुलनभोनभोमणिश्रीमदभयदेवाचार्यवर्यविहितविवरणयुतं श्रीमद्भगवतीवृत्तौ षदिशं शतकं समाप्तम् / / // 1562 //
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